प्रेम ग्रन्थ
जब भी लिखा गया
मैं प्रेमी था
और तुम प्रेयसी
वही अक्षर रहे वही शब्द
वही रचना रचती आई
सदियों सदियों से
रचना जब भी वो रची गई
वही प्रेम ग्रन्थ कहलाई
हर शब्द में प्रेम भरा हुआ था
पन्ने पन्ने में नेह धरा हुआ था
तब उस प्रेम ग्रन्थ को पढ़ने वाले
जान सके प्रेम आखिर है क्या बला
bhaavon se bhari rachna prasant sir
ReplyDeleteबेहद सुन्दर रचना जी.....
ReplyDeleteबहुत पसंद आयी मुझे
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर .../
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