शायद
इक अजनबी
थे तुम
जब हम मिले थे
तुम्हारी आँखों
ने
जन्मों की पहचान करा दी
अपना बनाकर
हमें इस कदर चाहा तुमने
चाहत से तुम्हारी
अब हमें मोहब्बत हो गई
पर डरते हैं
हम इस जहां से
इसके सलीकों से
इसके इम्तेहां से
सच कहते हो तुम
इन रिश्तों को
पर डरते हैं
हम इस जहां से
इसके सलीकों से
इसके इम्तेहां से
सच कहते हो तुम
इन रिश्तों को
इन्हीं परछाइयों में
पलने दें हम
पलने दें हम
क्यूँ कोई नाम दें इसे
और
रुसवाई सहें हम
और
रुसवाई सहें हम
चाहत अपने दिल की
दिल में ही रहने दें हम
दिल में ही रहने दें हम
खूबसूरत!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया प्रस्तुति...
कोमल एहसास... !!