Saturday 6 October 2012

चाहत इक अजनबी की

शायद 
इक अजनबी थे तुम 
जब हम मिले थे
तुम्हारी आँखों ने 
जन्मों की पहचान करा दी 
अपना बनाकर 
हमें इस कदर चाहा तुमने
चाहत से तुम्हारी 
अब हमें मोहब्बत हो गई
पर डरते हैं 
हम इस जहां से 
इसके सलीकों से 
इसके इम्तेहां से 
सच कहते हो तुम 
इन रिश्तों को 
इन्हीं परछाइयों में 
पलने दें हम
क्यूँ कोई नाम दें इसे 
और 
रुसवाई सहें हम 
चाहत अपने दिल की 
दिल में ही रहने दें हम 




1 comment:

  1. खूबसूरत!
    बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति...
    कोमल एहसास... !!

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