Thursday 4 October 2012

तुम्हारी चाहत


चाहत तुम्हारी कैसी है

जैसे

गर्मी की तपती दुपहरी में

निर्झर बहते झरने के

ठंढे जल में

घंटों पाँव डुबाये रखना

तुम्हारी चाहत

वही ठंढक

वही शीतलता

वही आनंद

ज़िन्दगी में भर देती है

या फिर जैसे

इक नयी भोर में

उगता नया सूरज

अँधेरे को बुहार

उजियारा फैला

नयी उमंग भर देता है

अंग अंग में

तुम्हारी चाहत

वही उमंग

वही रौशनी

मेरे मन में भर देती है

या फिर जैसे

किसी उजड़े गुलशन में

बहार के आने से

कलियाँ गुनगुनाने लगती हैं

फुल खिल उठते हैं

तितलियाँ मचल उठती हैं

तुम्हारी चाहत

मेरे मन के

गुलशन को महका देती है

या फिर जैसे

दिन के ढलते ही

आसमान में फैला सिन्दूर

दूर तक पसर जाता है

तुम्हारी चाहत

मेरे मन के आसमान में

गीले रंग की तरह

सिन्दूर बन पसर जाती है

या फिर जैसे

रात की बाहों में

तारों की छाँव में

चाँद नहलाता है

चकोर को

अपनी चांदनी से

उसकी प्यास बुझाती है

ओस की एक बूँद

तुम्हारी चाहत

नहलाती है मेरे मन को

अपनी चांदनी से

और बुझाती है प्यास

मेरे मन की

अपने प्यार की ओस से












3 comments:

  1. चाहत तुम्हारी कैसी है

    जैसे

    गर्मी की तपती दुपहरी में

    निर्झर बहते नदी के

    ठंढे जल में

    घंटों पाँव डुबाये रखना.. Prashant ji.. ..bhawnaao me doob kar likhte hain aap.. bahut hi sundar...

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  2. ओस की एक बूँद

    तुम्हारी चाहत...mast

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  3. प्रतीकात्मक और शब्दों का सुन्दर चयन... बहुत अच्छा लगा, सुन्दर रचना प्रशांतजी जी, बधाई !!

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