वफ़ा पे मेरे उनको यक़ीं भी नहीं था,
बिछड़ने का शायद उन्हें ग़म भी नहीं था।
निगाहें थीं शर्मीदा, लब थे खामोश,
सवालों का कोई भी जवाब ही नहीं था।
सदाएँ पुकारें थीं दिल से कई बार,
मगर उनकी राहों में मिरे नाम का दीया नहीं था।
टूटी थी जब दिल की तन्हा इमारत,
उसी वक़्त एहसास का कारवाँ भी नहीं था।
ख़्वाबों की बस्ती थी वीरान जबसे,
उमीदों का कोई कारवाँ भी नहीं था।
लबों पर तबस्सुम की सूरत थी ग़म की,
खुशी का वहाँ कोई निशाँ भी नहीं था।
जज़्बात थे लेकिन वो बे-रंग सारे,
अश्कों के सिवा कुछ वहाँ भी नहीं था।
हर मोड़ पे उसकी सदा ढूँढता था,
मगर लौट आने का वादा कहीं भी नहीं था।
छुपाए हुए थे जो दिल के फसाने,
कहने को अब कोई ज़ुबां भी नहीं था।
वफ़ा पे मेंरे उनको यक़ीं भी नहीं था,
कुछ भी नहीं था, बस यही दिल-ए-ग़मी था।
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