Sunday, 27 April 2025

वफ़ा पे मेरे उनको यक़ीं नहीं था - 1

वफ़ा पे मेरे उनको यक़ीं नहीं था,

मिरे हाल-ए-दिल का कहीं भी असर नहीं था।


निगाहें झुकी थीं, लबों पे ख़ामुशी थी,

लबों से मगर कोई शिक़ायत नहीं थी।


सदाएँ दीं कितनी, सुनी भी नहीं थीं,

क़िस्मत में शायद बिछड़ने की लिखी थी।


मेरा सब्र टूटा, उम्मीद भी रुकी थी,

सांसों में बसी सिर्फ़ तन्हा नमी थी।


ख़्वाबों की बस्ती वीरान हो चली थी,

हर मुस्कान भी अब ग़मगीन हो चली थी।


वो जज़्बात मेरे अजनबी बन गए थे,

जो लफ़्ज़ थे अपने, बे-ज़ुबान बन गए थे।


हर मोड़ पे मैंने बस उनको पुकारा,

हर दर्द ने लेकिन मिरा दिल उजाड़ा।


छलके थे आँसू, मगर छुपा लिए थे,

टूटे हुए अरमान लबों पे सजा लिए थे।


अब रह गई है बस एक तन्हाई,

न शिकवा किसी से, न कोई रुसवाई।


वफ़ा पे मेरे उनको यक़ीं नहीं था,

कुछ भी नहीं था, बस यही दिल-ए-ग़मी था

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