नारी को
कभी उसका
सम्मान नहीं मिला
जग का सृजन करने वाली
जननी का
मान नहीं मिला
युगों से
उसे हर वेदना की भट्ठी में
झोंका गया है
हमेशा
बेड़ियों को तोड़ने की
उसकी हर कोशिश को
रोका गया है
उसकी हर होनी को
किस्मत का लेखा
कहा गया
उसके दुःख दर्द तकलीफों को
आंसुओं का सैलाब
बहा गया
नारी की सहनशीलता को
युगों युगों से
परखा गया
तब नारी विमर्श क्यूँ नहीं
सोचा गया
नहीं तो
सीता
वन में यूँ न रोती
और
पांचाली
भरी सभा में
शर्मसार न होती
उसकी इज्ज़त का
रेशा रेशा नोचा गया
कभी यह नहीं सोचा गया
कि
नारी भी
सम्मान की हक़दार है
नारी है तो
यह संसार है
नारी को तो बस
भोग ही माना गया
उसे बस तिरस्कार
योग्य ही माना गया
जब जब
नारी उत्थान की बात हुई है
उसके अरमानों पर घात हुई है
हम जागरूकता की बात करते हैं
पर नारी विमर्श करने से डरते हैं
क्यूंकि
जब जब भी नारी विमर्श हुआ है
सदैव
पुरुष अहं की तुष्टि ही निष्कर्ष हुआ है
कहते हैं
नारी अब अबला नहीं है
पर क्यूँ
वह दिखती सबला नहीं है
चाहे कितना भी हम
प्रगति के पथ पर अग्रसर हो जाएँ
पर ऐसा हो नहीं सकता
हम नारी अपमान का
कोई भी अवसर खो जाएँ
माँ बहन बेटी को
हम वो सम्मान कहाँ दे पाये
बस गालियों में ही उसे
जी भर कर आजमाए
आज भी
सड़कों पर चौराहों में
दफ्तर में बाजारों में
नारी कहाँ सुरक्षित है
हर घड़ी
वह अपनी सुरक्षा को सशंकित है
कैसा
हमने यह समाज बनाया है
जिसमें
नारी अपमान का रिवाज़ बनाया है
यूँ ही अगर
अपमानित होती रही
हमारी जननी
भारी ना पड़े कहीं
सृष्टि पर
हमारी करनी
क्यूंकि
जब जब
नारी ने दुर्गा का रूप धरा है
उसने पापी का स्वरुप हरा है
कभी उसका
सम्मान नहीं मिला
जग का सृजन करने वाली
जननी का
मान नहीं मिला
युगों से
उसे हर वेदना की भट्ठी में
झोंका गया है
हमेशा
बेड़ियों को तोड़ने की
उसकी हर कोशिश को
रोका गया है
उसकी हर होनी को
किस्मत का लेखा
कहा गया
उसके दुःख दर्द तकलीफों को
आंसुओं का सैलाब
बहा गया
नारी की सहनशीलता को
युगों युगों से
परखा गया
तब नारी विमर्श क्यूँ नहीं
सोचा गया
नहीं तो
सीता
वन में यूँ न रोती
और
पांचाली
भरी सभा में
शर्मसार न होती
उसकी इज्ज़त का
रेशा रेशा नोचा गया
कभी यह नहीं सोचा गया
कि
नारी भी
सम्मान की हक़दार है
नारी है तो
यह संसार है
नारी को तो बस
भोग ही माना गया
उसे बस तिरस्कार
योग्य ही माना गया
जब जब
नारी उत्थान की बात हुई है
उसके अरमानों पर घात हुई है
हम जागरूकता की बात करते हैं
पर नारी विमर्श करने से डरते हैं
क्यूंकि
जब जब भी नारी विमर्श हुआ है
सदैव
पुरुष अहं की तुष्टि ही निष्कर्ष हुआ है
कहते हैं
नारी अब अबला नहीं है
पर क्यूँ
वह दिखती सबला नहीं है
चाहे कितना भी हम
प्रगति के पथ पर अग्रसर हो जाएँ
पर ऐसा हो नहीं सकता
हम नारी अपमान का
कोई भी अवसर खो जाएँ
माँ बहन बेटी को
हम वो सम्मान कहाँ दे पाये
बस गालियों में ही उसे
जी भर कर आजमाए
आज भी
सड़कों पर चौराहों में
दफ्तर में बाजारों में
नारी कहाँ सुरक्षित है
हर घड़ी
वह अपनी सुरक्षा को सशंकित है
कैसा
हमने यह समाज बनाया है
जिसमें
नारी अपमान का रिवाज़ बनाया है
यूँ ही अगर
अपमानित होती रही
हमारी जननी
भारी ना पड़े कहीं
सृष्टि पर
हमारी करनी
क्यूंकि
जब जब
नारी ने दुर्गा का रूप धरा है
उसने पापी का स्वरुप हरा है
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबिलकुल एक सच्ची अनुभूति है... जो सुकून इस जननी मिटटी में है वो इस धरा पर कही नहीं...
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...!!
बहुत ही सारगर्भित और संतुलित भावों का वहन करती हुई रचना के लिए शुभकामनाएं स्वीकार करें सर!
ReplyDeleteनारी स्वतंत्रता के सही पक्षधार है आप ...आभार
ReplyDelete