Tuesday 11 December 2012

नारी विमर्श

नारी को

कभी उसका

सम्मान नहीं मिला

जग का सृजन करने वाली

जननी का

मान नहीं मिला

युगों से

उसे हर वेदना की भट्ठी में

झोंका गया है

हमेशा

बेड़ियों को तोड़ने की

उसकी हर कोशिश को

रोका गया है

उसकी हर होनी को

किस्मत का लेखा

कहा गया

उसके दुःख दर्द तकलीफों को

आंसुओं का सैलाब

बहा गया

नारी की सहनशीलता को

युगों युगों से

परखा गया

तब नारी विमर्श क्यूँ नहीं

सोचा गया

नहीं तो

सीता

वन में यूँ न रोती

और

पांचाली

भरी सभा में

शर्मसार न होती

उसकी इज्ज़त का

रेशा रेशा नोचा गया

कभी यह नहीं सोचा गया

कि

नारी भी

सम्मान की हक़दार है

नारी है तो

यह संसार है

नारी को तो बस

भोग ही माना गया

उसे बस तिरस्कार

योग्य ही माना गया

जब जब

नारी उत्थान की बात हुई है

उसके अरमानों पर घात हुई है

हम जागरूकता की बात करते हैं

पर नारी विमर्श करने से डरते हैं

क्यूंकि

जब जब भी नारी विमर्श हुआ है

सदैव

पुरुष अहं की तुष्टि ही निष्कर्ष हुआ है

कहते हैं

नारी अब अबला नहीं है

पर क्यूँ

वह दिखती सबला नहीं है

चाहे कितना भी हम

प्रगति के पथ पर अग्रसर हो जाएँ

पर ऐसा हो नहीं सकता

हम नारी अपमान का

कोई भी अवसर खो जाएँ

माँ बहन बेटी को

हम वो सम्मान कहाँ दे पाये

बस गालियों में ही उसे

जी भर कर आजमाए

आज भी

सड़कों पर चौराहों में

दफ्तर में बाजारों में

नारी कहाँ सुरक्षित है

हर घड़ी

वह अपनी सुरक्षा को सशंकित है

कैसा

हमने यह समाज बनाया है

जिसमें

नारी अपमान का रिवाज़ बनाया है

यूँ ही अगर

अपमानित होती रही

हमारी जननी

भारी ना पड़े कहीं

सृष्टि पर

हमारी करनी

क्यूंकि

जब जब

नारी ने दुर्गा का रूप धरा है

उसने पापी का स्वरुप हरा है



4 comments:

  1. बिलकुल एक सच्ची अनुभूति है... जो सुकून इस जननी मिटटी में है वो इस धरा पर कही नहीं...
    बहुत सुंदर ...!!

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  2. बहुत ही सारगर्भित और संतुलित भावों का वहन करती हुई रचना के लिए शुभकामनाएं स्वीकार करें सर!

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  3. नारी स्वतंत्रता के सही पक्षधार है आप ...आभार

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