कल रात
सड़कों पर
हैवानियत के हाथ
एक अबला की
अस्मत लूटती रही
और सभ्यता
बंद घरों में
गूंगे और बहरों की तरह
घुटती रही
इंसानियत पर से
जाने कितनी अबलाओं की
आस टूटती रही
जो आस अब तक
विश्वास थी
वह आस बिखरती रही
और घर की इज्ज़त
सरेआम
शर्मसार होती रही
सड़कों पर
हैवानियत के हाथ
एक अबला की
अस्मत लूटती रही
और सभ्यता
बंद घरों में
गूंगे और बहरों की तरह
घुटती रही
इंसानियत पर से
जाने कितनी अबलाओं की
आस टूटती रही
जो आस अब तक
विश्वास थी
वह आस बिखरती रही
और घर की इज्ज़त
सरेआम
शर्मसार होती रही
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