Sunday 30 December 2012

हम शर्मसार हैं


आज

कई दिन की ठंढ के बाद

सुबह की खिली खिली धूप

क्यूँ खुशनुमा नहीं लग रही

क्यूँ इसमें वो तपिश नहीं है

क्यूँ खिले फुल

मुरझाये से लग रहे हैं

क्यूँ उदासी मन को निचोड़ रही है

शायद वह नहीं है अब

पर उसकी तड़पती आत्मा

हम सबको झिंझोड़ रही है

उन दरिंदों से

वह अकेली लड़ती रही

फिर मौत से

वह अकेली भिड़ती रही

अब उसकी लड़ाई को

हमें

अंजाम तक पहुँचाना ही होगा

उसकी तड़पती आत्मा को

शान्ति दिलाना ही होगा

जब तक वो दरिंदे जिंदा हैं

दामिनी हम शर्मिंदा हैं

पर आज हर एक ने ठानी है

उनको वही मौत दिलानी है

जिसके वो हक़दार हैं

क्यूंकि

तुम्हारी मौत से

सारी सृष्टि शर्मसार है  




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