प्रस्तावना: बनने से पहले की साँस
नाम से पहले,
प्रेम से पहले,
एक ख़ामोशी थी —
ख़ाली नहीं, प्रतीक्षित।
दो चिंगारियाँ
समय की कोख में सोई थीं,
धड़कन और साँस के बीच की चुप्पी में,
वे प्रतीक्षा में थीं —
मिलने के लिए नहीं,
balki याद करने के लिए।
भाग I – मिलन के बाद की मौनता
अब जब सितारे भी नहीं साँस लेते,
और स्वर्ग ने अपना अंतिम “क्यों” कह दिया,
वे मिले — अजनबी नहीं,
बल्कि प्रतिध्वनियाँ, जो समय के द्वार से लौट आईं।
अब कोई प्रश्न नहीं, कोई शब्द नहीं,
उनकी ख़ामोशी बोलती है जैसे कोई अंतरंग तूफ़ान।
न आग, न हवा — बस साँसों की संगति,
दो आत्माएँ एक में विलीन।
वो — प्रकाश में बहती एक प्रार्थना,
वह — रात को चूमता एक संध्या।
साथ-साथ वे चले पवित्र आकाश में,
सपनों के पीछे नहीं, डर को उतारते हुए।
उसकी आवाज़ — पत्थर पर हवा की बाँसुरी,
उसकी दृष्टि — वह दुआ जो उसने जन्मों से जानी।
न कोई अतीत, न कोई नाम,
केवल उपस्थिति — हर ओर, हर क्षण।
जगत झुक गया, समय रुक गया,
क्षण में ही चिरंतन समा गया।
प्रेम में इतना माधुर्य था,
कि चाँद भी भूल गया सूरज को।
परंतु सच्चा प्रेम कभी स्थिर नहीं होता —
वह बहता है, ऊँचाइयाँ चढ़ता है।
वह मिलन में नहीं ठहरता,
बल्कि गहराइयों की ओर चलता है।
जब उस आनंद का आवरण हटने लगा,
उन्होंने भीतर से एक फुसफुसाहट सुनी:
“अभी अंत नहीं, अभी पूर्णता नहीं —
वृक्ष को छुआ है, पर फल नहीं आया।”
प्रेम एक ठिकाना नहीं, एक प्यास है,
एक पथ है, जहाँ आत्मा स्वयं को पाती है।
वे साथ चले — न नाम की खोज में, न पहचान की,
बल्कि वहाँ तक जहाँ पुराना 'मैं' टूटता है।
और उस मौन, काँपते क्षण में,
उन्होंने पाया एक मंदिर —
बाहर नहीं, बल्कि
हर साँस के बीच में।
भाग II – आईना और अग्नि
पर प्रेम — असीम होते हुए भी — परिपक्व होना चाहता है,
केवल प्रकाश में नहीं, छाया की लहरों में भी।
जो पूर्ण है, उसे ज्ञान भी चाहिए,
और जो जुड़ गया है, उसे अग्नि भी पार करनी होती है।
वे स्वर्णघास के खेतों में चले,
हाथों में समय की पतली डोर।
पर उनके हृदयों में उठी एक चुप्पी —
कोरी नहीं, पर अज्ञात सी।
उसके प्रकाशमय स्वरूप में,
उसने देखा एक झिलमिलाहट — उसका चेहरा नहीं,
बल्कि वे जन्म-जन्मांतर की पीड़ाएँ,
जो अभी भी जीवित थीं।
उसने पूछा, नम आँखों से,
“क्या तुमने नहीं सुनी वे पुरानी चीखें?
हमने जो युद्ध किए,
वह अभिमान भरा प्रेम —
वे टूटे वचन, वे अधूरे संकल्प?”
वह चुप खड़ा रहा, पर उसकी आत्मा काँप गई।
“हाँ,” उसने कहा, “मैं भी देखता हूँ —
वह नृत्य, वह आग, वह दुःख।”
उन्होंने एक-दूजे में देखा सत्य —
न केवल देवत्व, बल्कि दोष भी।
न केवल अनुग्रह, बल्कि पछतावा।
और उस पीड़ा में, एक अनोखा शांति मिली।
वे रोए — केवल बीते समय के लिए नहीं,
बल्कि उन रूपों के लिए जो कभी सामने नहीं आए।
वे नाम, वे चेहरे, वे जन्म —
जो केवल स्वप्नों में बचे रह गए।
और उस शोक में उठी एक अग्नि —
परीक्षा, जो हर रूहानी प्रेम को चाहिए।
क्या वे प्रेम कर सकते हैं — केवल पूर्णता से नहीं,
बल्कि टूटी हुई सच्चाई से भी?
वे रुके — बिना शब्दों के, बिना भागे।
उनकी छायाएँ नाचीं, झुकीं, और मिट गईं।
और उस राख में — खिला प्रेम का वास्तविक फूल।
क्योंकि उस आईने में, जिसमे आँसू बहते थे,
वे एक-दूसरे को पूर्ण रूप में देख सके —
न सिद्ध, न पवित्र,
बल्कि सच्चे, खुले, स्वीकारे गए।
भाग III – वह बिछड़ना जो वियोग नहीं
फिर वह क्षण आया — चुप, सरल,
जब हवाएँ थम गईं,
फूलों ने अपनी सुगंध समेट ली,
और समय ने स्वयं को भूल गया।
वे बैठे आकाश के नीचे,
न कोई आँसू, न कोई अंतिम विदा।
बस साँसें थीं — अनंत की तरह गहरी।
तारों ने झाँका पर कुछ न कहा,
चाँद ने अपनी चाँदनी रोक ली।
यह प्रेम — पिघलती आत्मा का पर्व —
अब न कुछ माँगता था, न देता।
उसने कहा, “मैं बुलावे को महसूस करती हूँ,”
“एक मार्ग है जो मेरा अपना है —
जहाँ मुझे अकेले जाना है।”
वह मुस्कराया — भीतर हृदय काँपा,
पर वह जानता था — यह प्रेम की अग्निपरीक्षा है।
“तुम जाओ,” उसने कहा, “जहाँ प्रकाश मौन से उपजता है,
और मैं यहीं रहूँगा —
जहाँ स्वर्ग की जड़ें मिट्टी में गहराती हैं।”
कोई वचन नहीं, कोई बंदिश नहीं,
केवल यह समझ —
कि सबसे ऊँचा प्रेम वह होता है
जो उड़ने देता है।
वह उठी जैसे प्रातः का सूरज,
वह रुका जैसे वटवृक्ष।
और उस बिछड़ने में, जो अधूरा नहीं था,
उनका मिलन और भी गहरा हुआ।
क्योंकि उन्होंने सीखा था —
आत्माएँ पास रहकर नहीं जुड़तीं,
बल्कि उस स्थान से
जो हम दूसरे को देते हैं उड़ने के लिए।
वह चली — फिर भी उसके भीतर,
वह रुका — फिर भी उसकी साँसों में।
वियोग नहीं, वरदान था वह —
दो रूहों की पूर्ण स्वतंत्रता।
भाग IV – रूपातीत मिलन
वर्ष बीते —
युग चले —
वो अपने-अपने मार्गों पर चलते रहे,
जैसे सौरमंडल अपनी धुरी पर।
वह मौन में सेवा करता रहा,
वह बारिश में गाती रही।
उनके स्पर्श ने दुनिया को बदला,
पर उनका मिलन अब समय से परे था।
एक संध्या — जहाँ न तारा थमता, न दिशा —
वे फिर मिले — न प्रेमी, न संगी,
बल्कि उस प्रकाश की तरह
जो हर वस्तु के बीच बसता है।
न कोई देह, न कोई नाम,
न कोई बीता हुआ वादा,
सिर्फ एक कंपन — एक ब्रह्मस्वरूप।
वह थी — जैसे उगती कुहासे की रेखा,
वह था — जैसे तारे के माथे पर चुप्पी।
अब वे हर लहर में, हर साँस में,
हर भाव में — एक साथ।
वे बीज की चुप्पी बने,
कवि की व्यथा,
समुद्र की झलक,
एक ऐसी आत्मा जो कभी विभाजित नहीं होती।
और उस सत्य में — जो देखा नहीं जाता, केवल जाना जाता है,
वे अपने मूल रूप में आए।
कोई द्वार नहीं, कोई वापसी नहीं,
केवल वह प्रेम — जो अब कुछ नहीं माँगता।
वे अब भी हैं — प्रकाश में, वर्षा में,
आनंद में, पीड़ा में, हर कहीं।
क्योंकि ऐसा प्रेम कभी समाप्त नहीं होता —
वह ब्रह्मांड को जन्म देता है।
उपसंहार – मौन की एक टिप्पणी
अंत में — कोई अंत नहीं,
केवल एक मौन जहाँ कथाएँ झुक जाती हैं।
जहाँ नाम गल जाते हैं,
और केवल प्रेम की छाया रह जाती है।
यह जो आपने पढ़ा — केवल उनका नहीं था,
बल्कि वह गीत है जो मौन भी गुनगुनाता है।
वह पहली साँस जो आपने रोते हुए ली,
वह सपना जो टूट गया — और जो अब भी बसा है।
आपके हृदय में जो अग्नि जलती है,
जो दूरी, पीड़ा और समय को भी पार कर जाती है —
वही है यह यात्रा।
आत्मा केवल अपना साथी नहीं ढूँढती,
वह अपने भाग्य का आईना ढूँढती है।
वह जलना चाहती है, टूटना चाहती है,
और फिर स्वयं को जानना चाहती है।
रूप छोड़कर भी रह जाना —
किसी की साँसों में फुसफुसाहट की तरह।
प्रेम देना, बिछड़ना, फिर लौट आना,
और हर बार, और भी गहराई से प्रेम करना।
तो जब आप किसी हल्की सी पुकार को महसूस करें,
या किसी अनकहे मौन को,
जान लीजिए — यह यात्रा अभी भी चल रही है —
हर उस दिल में, जो प्रेम करता है... और रोता भी है।
कहीं — आकाश की सीमाओं से परे,
दो आत्माएँ फिर से मिल रही हैं —
न तुम, न मैं, न वह, न वह —
बल्कि सब कुछ जो था और सब कुछ जो होगा।