(जो अब भी हर साँस में बह रही है)
मेरे प्रिय,
अब न कोई तारीख़ है इस पत्र पर,
न कोई पता जहाँ इसे भेजा जाए।
फिर भी जानती हूँ—
तुम तक पहुँचेगा,
जैसे हर भावना
बिना रास्ते के भी
अपने घर पहुँच जाती है।
कभी-कभी सोचती हूँ,
हमारा मिलना
वक़्त की भूल नहीं था—
बल्कि वक़्त से परे
कोई पुराना वादा था,
जो निभा लिया हमने
बिना शर्तों के, बिना उम्मीदों के।
तुम्हारा जाना…
क्या वाक़ई जाना था?
या बस
एक रूप से दूसरे में ढल जाना?
क्योंकि मैं तुम्हें
अब भी हर सुबह की हवा में पाती हूँ—
उस चुप्पी में
जो सबसे सच्ची भाषा है।
तुम अब देह नहीं—
लेकिन जब भी कोई ख़ुशबू
अचानक दिल को छू जाती है,
मैं मुस्कुरा देती हूँ—
"ये तुम ही तो हो…"
मैंने भी अपने भीतर की ठोस दीवारें
धीरे-धीरे भुला दी हैं।
अब मैं कोई नाम नहीं,
कोई कहानी नहीं—
बस एक एहसास हूँ,
जो तुम्हारे मौन में गूंजता है।
हम मिलते हैं
हर उस ख़्वाब में
जहाँ रोशनी
रंग नहीं मांगती,
और छुअन
शब्दों की मोहताज नहीं होती।
तुम मेरे अंतिम विचार में नहीं—
तुम तो अब
हर विचार की शुरुआत हो।
जिस प्रेम को हमने जिया,
उसने वक़्त को भी झुकना सिखा दिया।
अब हमें
किसी ‘फिर से मिलने’ की ज़रूरत नहीं—
क्योंकि हम
कभी बिछड़े ही नहीं।
तुम,
मेरी हर साँस की धुन में।
मैं,
तुम्हारे हर मौन के अंतराल में।
बस यूँ ही बहते रहेंगे—
एक-दूसरे में,
एक रौशनी की तरह
जो कभी बुझती नहीं।
तुम्हारी —
हमेशा की तरह।
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