Monday, 14 July 2025

मेरे महबूब के नाम मेरी मोहब्बत भरी वसीयत

 (एक काव्यात्मक प्रेम-वसीयत)


मैं,

इस इश्क़ की आख़िरी सांस तक ज़िंदा रहने वाला 

आशिक़,

अपनी सारी मोहब्बत की वसीयत

तेरे नाम करता हूँ —

मेरे महबूब, मेरी रूह की रौशनी,

ये दिल,

ये जिगर,

ये जान —

अब तेरे नाम है।


जो धड़कनें चल रही हैं सीने में,

वो अब तेरे इश्क़ की अमानत हैं।

जो लहू बहता है मेरी रगों में,

उसमें भी अब तेरा नाम घुल चुका है।


मेरे महबूब,

मैं छोड़ता हूँ तेरे लिए —


वो पहला मोड़ जहाँ हम यूँ ही टकराए थे,

वो बरगद की छाँव जहाँ तू मुस्कराई थी,

वो कॉलेज की सीढ़ियाँ जहाँ हम बैठते थे,

हर वो पन्ना जहाँ तेरा नाम लिखा था मैंने चुपके से।


मेरे कमरे की वो खिड़की भी तेरे नाम,

जहाँ से मैं तुझे सोचा करता था,

और हर शाम, हर सुबह,

तू यादों के साथ चली आती थी।


तेरे नाम करता हूँ —

वो सड़क जहाँ तू पहली बार मेरे साथ चली थी,

वो चाय की दुकान,

जिसके कप में दो होंठों की बातों का स्वाद अब भी बचा है।


पार्क की वो बेंच,

जहाँ खामोशी से हमारा इकरार हुआ था,

वो लम्हा जब तेरी उंगलियों ने मेरी हथेली थामी थी —

अब सिर्फ तेरा है।


तेरे नाम करता हूँ —

वो गाने जो हमने साथ सुने,

वो बारिश की बूँदें

जिनमें हम साथ साथ भींगे थे।


मेरे दिल की हर धड़कन,

मेरे जिगर की हर आह,

मेरी रूह की हर तड़प —

सब तेरे हवाले।


जो भी मुझमें था,

अब तुझमें समा गया है।

मैं तो कुछ भी नहीं,

इक सिवा तेरे।


तेरे नाम करता हूँ:

वो पहली नज़र का जादू,

जिसने मुझसे मेरी तन्हाई छीन ली थी।

वो ठहरी सी दोपहरें,

जब तेरा नाम बिन बोले गूंजता था।


वो गली,

जहाँ मैं तेरे साथ चुपचाप चला था,

तेरे नाम।


वो चाँदनी रात,

जब तेरे साये में मेरी परछाई थरथराई थी —

तेरे नाम।


वो अधूरी कविताएँ,

जो मैं तुझसे कह नहीं पाया,

उसका हर हर्फ़, हर लफ्ज़ —

तेरे नाम।


तेरे नाम करता हूँ

हर वो जगह जहाँ हम बिछे,

मिले,

घुले,

और एक-दूसरे में समा गए।


शहर की भीड़ में थमा हुआ वो पल,

बारिश की ख़ामोशी में भीगा हुआ वो इकरार,

कांपती उंगलियों में बसी वो गर्मी —

अब सब तेरे नाम।


मेरी आँखों की सारी नींदें,

जो तेरी यादों में जागती रही हैं —

अब वो भी तेरे नाम।


हर वो जगह

जहाँ मैं तुझमें खोया था,

हर वो वक्त

जिसमें बस तू ही तू बसी थी —

उन पर अब बस तेरा हक़ है।


मैं रहूँ या न रहूँ,

पर ये मोहब्बत ज़िंदा रहेगी।

तेरे होंठों पर मुस्कराहट बनकर,

तेरे लबों की दुआ बनकर।


और आख़िर में —

जो मेरी मज़ार हो एक दिन,

वो भी तेरे नाम करता हूँ —

ताकि तू जब भी आकर वहाँ बैठे,

तेरे कदमों तले मेरी रूह सुकून पाए।


मेरे महबूब,

ये वसीयत सिर्फ लफ्ज़ नहीं,

ये उस रूह की गवाही है

जो बस तेरे नाम से ही जीती रही,

और तेरे नाम पर ही मर जाएगी।


– तेरा वसीयतगार-ए-इश्क़

एक दीवाना जो बस तुझमें ही जिया


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