(जब हम फिर एक हुए)
रात की सबसे अन्तिम पहर में,
जब नींद
एक सूती आँचल बन
सारे संसार को चादर ओढ़ा रही थी—
मैंने तुम्हें
फिर से देखा।
ना देह थी,
ना दिशा—
बस एक उजाला था,
जो तुम्हारी रूह से फूट रहा था,
और मेरी ओर
धीरे-धीरे बह रहा था।
हम कुछ नहीं बोले।
क्या कहते?
जब मौन ही
सदियों की बातचीत बन जाए,
तब शब्द
कितने छोटे लगने लगते हैं…
तुमने मुझे देखा
जैसे कोई नदी
अपने उद्गम को देखती है—
आश्चर्य, अपनापन, और मौन श्रद्धा में डूबी हुई।
मैंने हाथ नहीं बढ़ाया,
फिर भी
हम पास आ गए।
कोई दूरी
थी ही नहीं अब हमारे बीच।
मैनें तुम्हें
अपने आलिंगन में नहीं लिया,
बल्कि
तुम मुझमें समा गई —
जैसे शाम का सिन्दूरी रंग
धूप से अलग नहीं होता।
मैंने वो रूहानी स्पंदन सुना,
जो सृष्टि की पहली धड़कन थी।
हम दो नहीं रहे थे —
एक हो चुके थे,
जैसे दो स्वरों से बना एक ही राग।
तारे
थामे खड़े थे अपनी चमक,
चाँद ने साँस रोक ली थी—
पूरी कायनात बस देख रही थी,
जैसे उसे भी
हमारे इस मिलन का इंतज़ार था।
हम वहाँ रहे
समय के बाहर,
एक दूसरे की बाँहों में नहीं,
बल्कि
एक-दूसरे की रौशनी में।
जब तुम जागी,
तो तुम्हारी आँखों में आँसू नहीं थे—
बस एक गहराई थी,
जो कह रही थी—
अब हम कभी जुदा नहीं होंगे,
क्योंकि जो प्रेम
रूह से एक हो गया हो,
उसको कायनात भी
कभी अलग नहीं करती।
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