(दिल से निकली वसीयत-ए-इश्क़)
मैं,
तेरे इश्क़ में फ़ना हुआ एक सादा-सा आशिक़,
आज अपनी मोहब्बत की आख़िरी दस्तावेज़
तेरे नाम लिखता हूँ।
मेरे दिल की हर धड़कन,
मेरे जिगर की हर आह,
मेरी रूह की हर तड़प —
सब तेरे हवाले।
जो भी मुझमें था,
अब तुझमें समा गया है।
मैं कुछ भी नहीं,
सिवा तेरे।
तेरे नाम करता हूँ:
वो पहली नज़र का जादू,
जिसने मुझसे मेरी तन्हाई छीन ली।
वो ठहरी सी दोपहरें,
जहाँ तेरा नाम बिन बोले गूंजता रहा।
वो गली,
जहाँ तेरे साथ चुपचाप चला था मैं,
तेरे नाम।
वो चाँदनी रात,
जहाँ तेरे साये में मेरी परछाई थरथराई थी —
तेरे नाम।
वो अधूरी कविताएँ,
जो तुझसे कह नहीं पाया,
हर मिसरा, हर बहर —
तेरे नाम।
तेरे नाम करता हूँ:
वो हर जगह जहाँ हम बिछे,
मिले,
घुले,
और एक-दूसरे में समा गए।
वो स्टेशन की भीड़ में थमा हुआ वो पल,
वो बारिश की ख़ामोशी में भीगा हुआ इकरार,
वो कांपती उंगलियों में बसी गर्मी —
अब सब तेरा हक़।
मेरी आँखों की सारी नींदें,
जो तेरी यादों में जागती रही हैं —
अब वो भी तेरे नाम।
और जब मैं इस दुनिया से रुख़्सत लूं,
मेरी क़ब्र की मिट्टी भी
तेरे कदमों का बिछौना बन जाए।
मैं चाहता हूँ,
जब तू गुज़रे वहाँ से एक शाम,
तेरी ख़ामोश मौजूदगी
मेरी रूह की राहत बन जाए।
तू नहीं तो कुछ भी नहीं।
मैं नहीं, पर तू रहेगी
और जब तक तू है,
मेरा होना भी रहेगा।
मेरे महबूब,
ये वसीयत एक इश्क़ी दस्तावेज़ नहीं,
ये इक रूह की तहरीर है —
जो तुझमें ही जीती है,
तुझमें ही मरती है।
तेरे नाम, तुझसे ही, तेरे लिए।
– मोहब्बत में लिपटा तेरा दीवाना
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