Monday 7 January 2013

महफ़िल मेरे ख़्वाबों की


कल शाम सुरमई आसमां ने

मुझसे पूछा

क्यूँ शाम तुम्हारी है तनहा

कोई बात है तो मुझ को बता

मैंने कहा

वो कह कर गए हैं आने को

ख़्वाबों में महफ़िल सजाने को

बस अब शब का इंतज़ार है

आँखें ख़्वाबों को बेक़रार है

कहीं नींद खफा न हो जाये

दुश्मन-ए-वफ़ा न हो जाये

बस कुछ ऐसा जतन कर देना

नींद को इतना कह देना

वो राह इन आँखों की भटके नहीं

किन्हीं और आँखों में अटके नहीं

मैंने पलकों की पालकी बिछाई है

सेज नींद की सजाई है

नींद के सेज पर जाते ही

ख़्वाबों के आँखों में आते ही

महबूब के कदमों की आहट से

उनकी मनमोहक मुस्कराहट से

सज उठेगी महफ़िल मेरे ख़्वाबों की

महक उठेगी पंखुड़ी उनके गुलाबों की

तुम एक जतन और कर देना

शब् को वहीँ पर रोक लेना

जब बाहों में हो मेरा महबूब

उसकी आँखों में मैं रहा हूँ डूब

वो वक़्त कहीं जो गया निकल

फिर हो जाऊँगा मैं विकल

ना जाने कब फिर उनका आना हो

यूँ ख़्वाबों की महफ़िल सजाना हो

तुम सूरज को यह समझा देना

कुछ वक़्त ढले आये बतला देना

महबूब को मेरे यह मत बतलाना

पूछे भी अगर तो मत जतलाना

कि हमने तुमसे कोई गुजारिश की है

ख़्वाबों में उनको लाने की साज़िश की है















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