कहीं खो गया है
मेरा वजूद,
इस जहां को
संवारते-संवारते
मैं खुद बिखर गया।
हर रिश्ता,
हर नाता
किसी कर्ज की तरह
ढोया है बरसों
बिना हिसाब मांगे।
अपने हिस्से की
खुशियाँ बाँट दीं,
ग़म किसी से
कभी कहे नहीं।
बस देता रहा
बिना थमे
बिना कुछ माँगे।
माँ की दुआ में,
भाई की जीत में,
बेटी की मुस्कान में
मैंने पाया
अपना होना।
पर…
वो ‘मैं’
जो कभी सपना देखता था,
कहीं पीछे छूट गया।
अब जब
सफ़र का सूरज
ढलने को है,
मैं पूछता हूँ
ख़ुद से—
कहां हूँ मैं?
ये आईनें
अब मेरे नहीं,
इनमें कोई अजनबी
झाँकता है।
जिसकी आँखों में
थकावट है,
और दिल में
एक अधूरी तलाश।
शब्द, जो कभी
मेरी पहचान थे,
अब चुप हैं।
साँसें चल रही हैं
पर ज़िन्दगी रुकी है।
मैंने घर बनाया
पर मन का कोना
खाली रहा।
मैंने सबको अपना कहा
पर ख़ुद को
कभी नहीं पाया।
अब कहां ढूंढूं
मैं अपना वजूद?
उन काग़ज़ों में
जो मैंने जलाए थे?
या उन ख्वाबों में
जो नींद से पहले
रोज़ मर जाते थे?
शायद
किसी सूने पल में,
किसी टूटे लम्हे में,
मिल जाए
मेरा बचपन…
या वो आवाज़
जो कहे—
"तू भी ज़रूरी है…
अपने लिए जीना भी
इबादत है।"
अब चाहता हूँ
एक कोना
जहां मैं
सिर्फ़ "मैं" हो सकूँ,
जहां रिश्तों की ज़ंजीरें
थोड़ी ढीली हों,
जहां साँसें
अपने लिए चलें।
क्योंकि
कहीं खो गया है
मेरा वजूद
इस जहां को संवारने में,
अब कहां ढूंढूं
मैं अपना वजूद?
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