Thursday, 22 May 2025

मैं कहाँ हूँ?

कहीं खो गया है

मेरा वजूद,

इस जहाँ को

सँवारते-सँवारते

मैं खुद

मिट्टी सा

बिखर गया।


हर सुबह

किसी और की उम्मीदों में जागी,

हर रात

अपनी ही तन्हाई को

तकिए में दबा दिया।


मैंने दीवारें उठाईं

दूसरों के घरों के लिए,

और अपनी रूह को

बेआवाज़ गिरने दिया

हर बार,

हर मोड़ पर।


सदियों की थकान

चढ़ गई है

इन हड्डियों पर,

और रगों में

अब खून नहीं,

बस उधारी चलती है—

मोहब्बत की,

फ़र्ज़ की,

उन वादों की

जो मैंने कभी खुद से नहीं किए।


लोग कहते हैं—

"तुम फ़रिश्ते हो…"

काश कोई देखता

कि इस फ़रिश्ते के पंख

कब के जल चुके हैं।

अब तो बस राख उड़ती है

और कोई देखता भी नहीं।


मैंने दिल दिया

पर कभी समझा नहीं

कि मेरा भी दिल था।

हर किसी का सहारा बना

और खुद

डूबता रहा—

धीरे-धीरे,

चुपचाप।


अब जब

ज़िन्दगी का काफ़िला

ठहराव की ओर है,

मैं देखता हूँ

अपने पीछे—

तो सिर्फ़ साए हैं,

और कोई नाम नहीं।


आईनों में

अब चेहरा नहीं,

सिर्फ़ शिकस्त है।

साँसें चलती हैं

जैसे कोई

बोझ ढो रहा हो।


और ये सवाल

हर दिन,

हर रात

मेरे भीतर

कराहता है—

"मैं कौन था?"

"मैं कहाँ हूँ?"

"क्या मैं कभी था भी?"


अब तलाशता हूँ

एक कोना

जहाँ मैं

खुद से मिल सकूँ,

जहाँ रिश्तों की बेड़ियाँ

थोड़ी देर को उतरें,

जहाँ मैं

अपने नाम से पुकारा जाऊँ—

बिना किसी उपाधि के,

बिना किसी कर्तव्य के।


अब सोचता हूँ,

क्या मैं

खुद से माफ़ी माँग सकता हूँ?

उस 'मैं' से

जो हर बार चुप रहा,

हर बार सहा,

और फिर भी

कभी किसी से

कुछ नहीं कहा।


कहीं खो गया है

मेरा वजूद

इस जहाँ को सँवारते-सँवारते,

अब कहां ढूंढूं

मैं अपना वजूद?




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