जब मैंने तुम्हें
पहली बार देखा था
वो शाम
जैसे खुद वक़्त ने
अपने कदम रोक दिए हों
तुम यौवन की दहलीज़ पर
कोमल सुरों की तरह खड़ी थीं
मौसम की ख़ामोशी में
तुम्हारे कदमों की आहट
कविता बनकर घुल रही थी
तुम्हारी आँखों में
कोई अनकहा सपना
हौले-हौले झांक रहा था
और उन होठों पर
वो मासूम मुस्कान
जैसे फूलों ने अभी
ओस को चूमा हो
तुम्हारी दृष्टि
मेरे अंतर्मन तक
उतर गई थी
बिना कुछ कहे
तुमने मुझे
पूरा पढ़ लिया था
मेरे भीतर
एक मीठा कंपन हुआ
और मेरे होंठों पर
एक मुस्कान
ख़ुद-ब-ख़ुद उग आई
शायद नियति ने
इसी क्षण को
सदियों से सँजो रखा था
उस पल
दुनिया का हर शोर
मौन हो गया
बस हम थे
और हमारे बीच
एक अदृश्य पुल
जिस पर प्रेम की रौशनी
चलती रही चुपचाप
तुम्हारी आँखें
मेरी आँखों में ठहर गईं
जैसे दो नदियाँ
पहली बार
सागर से मिलने को रुकी हों
और मैं…
खुद को
तुम्हारी निगाहों में
पहली बार
पूरा महसूस कर रहा था
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