तुम खड़ी थी—
और पता नहीं क्यों,
हमारी जुदाई के बरसों ने
अचानक सर झुका लिया।
दुनिया तो चलती रही—
पर मेरी सांस थम गई।
तुम्हारी मुस्कान…
कहाँ बदली थी,
वही पुरानी दबे होठों की मुस्कराहट,
आज भी
वही थी जो कभी
मेरी आँखों से
आसमान चुरा ले गई थी।
तुम्हें देखते ही—
मैं फिर से उन्नीस का हो गया,
नादान,
अनजान,
पर ये मानता हुआ कि
प्यार
सितारों को
फिर से लिख सकता है।
और उसने लिखा भी।
जैसा वक्त ने चाहा।
जब तुम्हारे हाथ
फिर से मेरे हाथों से मिले,
वो लौट कर नहीं आए—
वो आगे बढ़े
हर उस पल की ओर
जो हमारा ही होना था।
तुम हँसी —
और मेरा नाम
तुम्हारे होंठों पर
फिर से नया लगने लगा।
जैसे वो वर्षों से
तुम्हारे जुबान के किनारे
सहरा में बारिश की उम्मीद लिए खड़ा था।
मैंने तुम्हारी आँखों में देखा—
न खोया हुआ वक्त,
न बीती बातें,
बल्कि वो पहली मुलाक़ात
जो अब भी भीतर कहीं
धीरे-धीरे सुलग रही थी।
तुम्हारा स्पर्श
एक याद था,
और एक शुरुआत।
एक दरवाज़ा था,
जो हर उस कोमल अहसास को खोलता था
जो हमने भूला था—
पर कभी भी
पूरी तरह खोया नहीं।
तुमने फुसफुसाया—
और हवा ने याद किया
हमारा पहला चुम्बन।
कितना नरम था वो।
कितना रूमानी
कितनी पाकीज़ा
हमने फिर चुम्बन लिया—
और वो वही था।
मगर पूरा।
जैसे दो लोग
अपने ही सपनों का घर
फिर से बना रहे हों।
तुम्हारा आलिंगन
सिर्फ गर्माहट नहीं था—
वो एक नक्शा था,
जहाँ मेरा दिल
हमेशा से जाना-पहचाना था,
पर ज़िन्दगी के शोर में खो गया था।
तुमने कहा,
“मैंने कभी छोड़ा नहीं।”
मैंने कहा,
“मैंने भी नहीं।”
ना कोई माफी थी,
ना कोई पछतावा।
बस प्यार का वो सुकून था —
जो सही वक्त पर
वापस लौट आया
अब,
हम फिर से शुरू करते हैं—
ना अज़नबी की तरह
ना ही पुराने आशिक़ की तरह,
बल्कि दो रूहें
जो जुदाई चख चुकीं,
और फिर से
साथ रहने का
फैसला कर चुकीं हैं।
तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में
उगते सूरज
जैसा लगता है—
नयेपन से नहीं,
बल्कि अनंतता से।
तुमने मुझे पाया
जहाँ मैं हमेशा था।
और मैं तुम में मिल गया —
जैसे
पहली बार मिला था
No comments:
Post a Comment