Thursday, 22 May 2025

मैं कहाँ हूँ? _- A Monologue

मोनोलॉग टोन में – "मैं कहाँ हूँ?"


(धीमी, गहराती हुई संगीत की पृष्ठभूमि। कैमरा धीरे-धीरे किसी अकेले बुज़ुर्ग चेहरे, धुंधली खिड़की, सूने रास्ते या पुराने काग़ज़ों पर चलता है।)


(धीरे, रुकी हुई आवाज़ में...)

कहीं... खो गया है

मेरा वजूद...

इस जहाँ को सँवारते-सँवारते

मैं खुद…

धीरे-धीरे

धूल सा उड़ गया।


हर सुबह

किसी और के नाम की थी…

और हर रात—

बस मेरी ख़ामोशी की।


मैंने अपने सपनों को

तह कर दिया

किसी और की चादर में,

अपनी मुस्कुराहटें

किसी और के नाम कर दीं।


और बदले में?

बस ख़ामोशी मिली...

और एक सवाल—

"तू कहां है?"


(संवाद की गहराई बढ़ती है)

कभी माँ की दुआ में,

कभी बेटे की कामयाबी में,

कभी बहन की शादी में

मैंने खुद को जिया...


पर जब आइना देखा—

एक थका हुआ अजनबी

झांकता मिला।


कोई पूछे तो क्या कहूं?

मैं वो हूँ

जिसने सबको निभाया…

पर खुद को कभी

जीने नहीं दिया।


अब…

जब जिंदगी

धीरे-धीरे

थमती जा रही है,

तो एक डर

हर रात पूछता है—


"अगर तू चला गया,

तो क्या वाक़ई

कोई जानेगा…

कि तू था भी?"


(थोड़ा रुक कर, बहुत धीमे सुर में...)

अब कहां ढूंढूं

मैं अपना वजूद?


टूटे खिलौनों में?

या उन ख़तों में

जो मैंने कभी खुद को नहीं लिखे?


मैं एक कोना चाहता हूँ…

जहाँ मैं

सिर्फ़ “मैं” हो सकूं।

जहाँ कोई नाम न हो,

कोई फ़र्ज़ न हो…

सिर्फ़ मेरी साँसें,

और मेरी खामोशियाँ हों।


(अंत में, एक शांत लेकिन भारी ठहराव के साथ)

कहीं खो गया है

मेरा वजूद

इस जहाँ को सँवारने में…

अब कहां ढूंढूं

मैं…

अपना वजूद?




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