Thursday, 15 May 2025

"गिरहों में लिपटी ज़िंदगी"

 [1. जन्म – मासूमियत की उलझन]

कपड़ों की सलवटों में लिपटी, नन्हे हाथों में थमी,

ज़िंदगी आई थी मुस्कुराती, पर खामोशी में गुम थी।

माँ की गोद में चैन था, पर सवाल वहीं से शुरू,

"किसके जैसे बनोगे?" – यह प्रश्न सबसे पहले मिला रूह को।


खिलौनों के बीच भी तुलनाओं की कसमसाहट,

"ये बच्चा तो जल्दी बोलने लगा..."

और तभी पहली गिरह लगाई गई —

अपेक्षा की।



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[2. बचपन – मासूम सपनों की उलझन]

स्कूल की यूनिफॉर्म में दबे ख्वाबों की हलचल,

अंग्रेज़ी की किताबों में कहीं गुम हो गई

वो चिड़िया जिसे पकड़ने दोड़ा करते थे।

होमवर्क के वजन से झुकती पीठ ने सीखा —

अंक ही पहचान हैं इंसान की।


खेल के मैदान को देखा खिड़की के पार,

और दूसरी गिरह लगी —

प्रतिस्पर्धा की।



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[3. किशोरावस्था – पहचान की उलझन]

आईना सवाल करता था:

"क्या तुम वाकई वही हो जो दिखते हो?"

दिल में भावनाओं का समंदर, पर होठों पर सन्नाटा,

"लड़के रोते नहीं", "लड़कियाँ ज़्यादा न हँसें",

इन जुमलों ने खींच दिए नकाबों के रेखाचित्र।


पहचान की तलाश में उलझते बाल, झूलती जीभ,

और एक गिरह और कस गई —

स्वीकार होने की।



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[4. जवानी – सपनों और सच्चाइयों की जंग]

कॉलेज में उम्मीदें लहराती थीं,

मगर जेब में वज़न था घर की उम्मीदों का।

प्रेम भी हुआ, पर समय नहीं था उसे जीने का,

करियर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए

कई रिश्ते जेब से फिसल गए।


आंखें चमकती थीं ऊँचाइयों से,

पर दिल डरा हुआ था गिरने से —

और एक गिरह और पड़ी —

चुनाव और बलिदान की।



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[5. प्रौढ़ावस्था – जिम्मेदारियों की उलझन]

अब तस्वीरें दीवारों पर थीं, और चेहरे फ़ोन में,

बच्चों की फीस, बूढ़े माँ-बाप की दवा,

और बीच में खुद की चुप ज़रूरतें।

"जी लेंगे बाद में" — यह वाक्य जीवन का मंत्र बन गया।


नींद भी अब अलार्म से डरती है,

और चाय भी अब मीठी नहीं लगती —

और एक गिरह जुड़ गई —

दूसरों के लिए जीने की।



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[6. वृद्धावस्था – अकेलेपन और पछतावे की उलझन]

अब वक़्त है, मगर साथ नहीं।

बच्चे दूर हैं, यादें पास।

आईने में झुर्रियाँ नहीं, अनकहे अफ़साने हैं।

"काश उस दिन थोड़ा रुक जाते...",

"काश एक बार और माँ को गले लगा लेते..."


टीवी चलता है, पर बातें बंद हैं।

और सबसे आख़िरी गिरह खुद से लगती है —

जीवन ना जी पाने की।



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[अंतिम पंक्तियाँ – गिरहों की शिनाख़्त]

और जब शाम उतरती है पलकों पर

तब ज़िंदगी एक गठरी सी लगती है,

जिसमें सपने, रिश्ते, ख्वाहिशें — सब कुछ है,

बस एक चीज़ नहीं —

ज़िंदगी की सांस।


गिरहें खोलते-खोलते बीत गया वक्त,

और जब खोलने की फ़ुर्सत मिली —

तब तक धागा ही टूट चुका था।

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