Thursday, 15 May 2025

"ज़िंदगी की गिरहें"

 उलझनों का सिलसिला सा चल पड़ा है उम्र भर,

हर सुबह एक सवाल, हर रात अधूरी ख़बर।

कभी रोटियों की जद्दोजहद, कभी नाम का बोझ,

कभी रिश्तों की दरारें, कभी खुद से ही खोज।


कभी मां-बाप की उम्मीदें, कभी बच्चों की चाह,

कभी समाज की सीमाएं, कभी अपने गुनाह।

कभी भीड़ में गुम चेहरा, कभी अकेलेपन की सजा,

कभी दिल की सुनने की चाह, कभी दिमाग की सजा।


सपनों की एक गठरी थी, बचपन में जो बंधी,

वक़्त की धूल ने उसे यूं ढक दिया, कि अब दिखती भी नहीं।

कुछ ख्वाहिशें जो उग आई थीं आंखों की कोरों में,

वो भी बह निकलीं ज़िम्मेदारियों की तेज़ धाराओं में।


कभी वक़्त की मार, कभी हालात का ताना,

हर मोड़ पर ज़िंदगी ने दिया कोई नया बहाना।

सच पूछो तो जिया ही कब? बस निभाई गई कहानी,

हर किरदार निभाया, पर अपनी ना थी ज़ुबानी।


दफ्तर की फाइलें, ट्रैफिक की चीखें,

फोन की घंटियां, अधूरी सी सीखें।

चाय ठंडी हो जाती है अक्सर जैसे रिश्ते,

बातें बस "ठीक हूँ" में सिमट जाती हैं,                                                        

बिना किसी इशारे के, बिना कुछ देखे।


कभी सोचते हैं बैठ कर – क्या यही है ज़िंदगी?

क्या यही दौड़ है, जहां अंत भी है थकी थकी?

क्यों ना रो लिया जाए एक बार खुल कर,

क्यों ना थामें खुद को, और कहें – “अब तो रुक ज़रा, ऐ सफर!”


पर फिर समय नहीं होता, न आराम का पल,

कभी कर्ज़ों की चुभन, कभी भविष्य का छल।

हर दिन की वही चक्की, वही आवाज़ें, वही ढर्रा,

और इसी बीच चुपके से, 

जीवन का सूरज ढल गया ज़रा ज़रा।


जब समझ आता है कि जीना बाकी था,

तब तक साँसों की डोर ढीली पड़ने लगती है।

और शाम की चुप्पी में, बीते सालों की भीड़,

बस एक सवाल छोड़ जाती है –

क्या वाकई हमने ज़िंदगी जी ... या बस गुज़ार दी?

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