ज़िंदगी,
जैसे माँ के आँचल में उलझा कोई बटन —
न खुलता है, न गिरता है।
बस टिका रहता है… साँसों की सिलाई में।
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बचपन
एक स्लेट थी —
जिस पर हर उंगली
किसी और का नाम लिखती रही।
गुब्बारे फूटते रहे,
और बड़े कहते रहे —
"असली उड़ान किताबों में होती है..."
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किशोर उम्र में
आईने ने पूछा —
"तू वही है जो ख़्वाब देखता था?"
और दिल ने कहा —
"शायद..."
(शायद भी आजकल पूरा जवाब होता है…)
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जवानी
सड़क पर भागती एक साइकिल थी —
जिसकी घंटी बजाना भूल गए,
और ब्रेक...
वो तो ज़िम्मेदारियों ने चुरा लिया।
कॉफी ठंडी होती गई,
और रिश्ते भी...
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बीच की उम्र में
घर एक पोस्टऑफिस बन गया था —
जहां सिर्फ़ बिल आते थे,
और जवाब में —
"मैं ठीक हूँ"
लिखा भेजा जाता था।
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बुढ़ापा
एक पुरानी डायरी की तरह था,
जिसके पन्ने पीले हो चले थे,
पर ख़ुशबू...
अब भी कहीं बची थी
— पिछली पंक्तियों में।
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और जब ज़िंदगी की शाम
धीरे से दरवाज़े पर दस्तक देती है,
तो लगता है जैसे —
कोई ख़त आया हो...
जिसे लिखा तो तुमने ही था,
पर भेजा किसी और ने…
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"ज़िंदगी जी ली?"
किसी ने पूछा कान में।
मैंने मुस्कुराकर गर्दन हिलाई,
और एक गिरह और बाँध ली —
खामोशी की।
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