Thursday, 15 May 2025

"ज़िंदगी... धागों की एक किताब"

 (रूह में भीगी एक कविता)


ज़िंदगी...

जैसे अलमारी के अंदर रखा कोई पुराना स्वेटर,

जिसमें बचपन की महक भी है

और धागों की कुछ उलझनें भी।



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बचपन

आंगन में गेंद खो गई थी,

और माँ की साड़ी पकड़कर पूछा था —

"खेलने कब जाऊँ?"

माँ ने बस मुस्कुरा कर चूल्हा हिला दिया था।


उसी दिन समझ आया,

ख़ुशी भी कभी-कभी

अधूरी रोटी के कोने में छुप जाती है।



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किशोरपन

एक चिट्ठी थी जेब में —

लिखी नहीं गई थी,

पर हर अल्फाज़ उसके इर्द-गिर्द मँडराते थे।


आईने से नज़रें चुराई,

क्योंकि चेहरा सवाल करने लगा था —

"तू कौन है?"



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जवानी

स्टेशन की तरह आई,

हर कोई चढ़ा...

मगर अपने ठहराव का टिकट कहीं गुम था।


प्रेम भी मिला —

काग़ज़ की नाव जैसा,

बारिश आई और बह गया।


फिर करियर की पटरी पर

ख्वाबों को बाँध दिया,

ट्रेन चलती रही...

रास्ते छूटते रहे।



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विवाह, परिवार, जवाबदेही...

एक अलार्म घड़ी में कैद हो गई सुबहें,

और रातें रजिस्टर में दर्ज हो गईं —

बिल, स्कूल फीस, दवाइयाँ।


बच्चों की हँसी वीडियो कॉल में सहेज ली,

और माँ की आवाज़ पुराने टेप में रह गई।



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बुढ़ापा

शब्दकोश की तरह हो गया —

हर पन्ना कुछ कहता है,

पर कोई पढ़ता नहीं।


चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं,

संवादों की सिलवटें थीं।


अब समय है —

पर बात करने वाला कोई नहीं।



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और एक शाम...

एक चुप चाय की प्याली,

एक धीमा रेडियो,

और पुरानी चिट्ठियों की सरसराहट...


ज़िंदगी ने पास बैठकर कहा —

"कब से ढूँढ रही थी तुझे..."


मैंने खिड़की के बाहर देखा,

धूप जा चुकी थी —

बस धूल रह गई थी कुर्सियों पर।



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"क्या जी ली?"

किसी ने भीतर से पूछा।


मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया —

"शायद नहीं,

बस सिलते-सिलते धागा टूट गया..."

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