(रूह में भीगी एक कविता)
ज़िंदगी...
जैसे अलमारी के अंदर रखा कोई पुराना स्वेटर,
जिसमें बचपन की महक भी है
और धागों की कुछ उलझनें भी।
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बचपन
आंगन में गेंद खो गई थी,
और माँ की साड़ी पकड़कर पूछा था —
"खेलने कब जाऊँ?"
माँ ने बस मुस्कुरा कर चूल्हा हिला दिया था।
उसी दिन समझ आया,
ख़ुशी भी कभी-कभी
अधूरी रोटी के कोने में छुप जाती है।
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किशोरपन
एक चिट्ठी थी जेब में —
लिखी नहीं गई थी,
पर हर अल्फाज़ उसके इर्द-गिर्द मँडराते थे।
आईने से नज़रें चुराई,
क्योंकि चेहरा सवाल करने लगा था —
"तू कौन है?"
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जवानी
स्टेशन की तरह आई,
हर कोई चढ़ा...
मगर अपने ठहराव का टिकट कहीं गुम था।
प्रेम भी मिला —
काग़ज़ की नाव जैसा,
बारिश आई और बह गया।
फिर करियर की पटरी पर
ख्वाबों को बाँध दिया,
ट्रेन चलती रही...
रास्ते छूटते रहे।
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विवाह, परिवार, जवाबदेही...
एक अलार्म घड़ी में कैद हो गई सुबहें,
और रातें रजिस्टर में दर्ज हो गईं —
बिल, स्कूल फीस, दवाइयाँ।
बच्चों की हँसी वीडियो कॉल में सहेज ली,
और माँ की आवाज़ पुराने टेप में रह गई।
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बुढ़ापा
शब्दकोश की तरह हो गया —
हर पन्ना कुछ कहता है,
पर कोई पढ़ता नहीं।
चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं,
संवादों की सिलवटें थीं।
अब समय है —
पर बात करने वाला कोई नहीं।
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और एक शाम...
एक चुप चाय की प्याली,
एक धीमा रेडियो,
और पुरानी चिट्ठियों की सरसराहट...
ज़िंदगी ने पास बैठकर कहा —
"कब से ढूँढ रही थी तुझे..."
मैंने खिड़की के बाहर देखा,
धूप जा चुकी थी —
बस धूल रह गई थी कुर्सियों पर।
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"क्या जी ली?"
किसी ने भीतर से पूछा।
मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया —
"शायद नहीं,
बस सिलते-सिलते धागा टूट गया..."
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