वो इश्क़ हम ही से करते हैं
जाने क्यों कहने से डरते हैं
नज़रों में लहरें उठती हैं,
पर होंठ अब भी खामोश हैं।
हर बार छू के गुज़रते हैं,
जैसे कुछ कहना ज़रूरी हो।
वो पास आकर भी दूर रहते हैं,
जैसे नज़दीकी ही सबसे बड़ा डर हो।
हर बात में मेरा ज़िक्र आता है,
फिर भी नाम मेरा नहीं लेते।
रातें जगा देती हैं उनको,
ख्वाब मेरे लाते हैं।
पर जब सुबह होती है,
वो कुछ नहीं बताते हैं।
हर लम्हा इशारा करता है,
पर जुबां इन्कार करती है।
मैं भी समझता हूँ सब कुछ,
पर उन्हें समझने का हक़ नहीं लेता।
वो आँखों से सब कह जाते हैं,
पर अल्फ़ाज़ से नहीं।
जैसे मोहब्बत कोई राज़ हो
जिसे ज़ाहिर करना जुर्म हो।
वो चलते हैं मेरी तरफ़
हर बार अधूरे क़दमों से।
जैसे डरते हों —
कि इकरार टूट न जाए।
मैं उनका हूँ —
वो जानते हैं।
वो मेरे हैं —
ये मानते हैं।
पर फिर भी,
ये इश्क़...
कहने से डरते हैं।
शायद खोने का डर,
शायद पा लेने का डर।
या शायद
मोहब्बत को सिर्फ़ महसूस करना ही
उनके लिए काफी हो।
पर सच तो ये है —
वो इश्क़ हम ही से करते हैं
जाने क्यों कहने से डरते हैं।
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