मेरी आदत
तुम थे
सुबह की पहली सांस
रात की आख़िरी सोच
हर ख्वाब की पहली धड़कन
हर खामोशी में तुम्हारी आहट
तुम्हारे बिना
सब सुना सा था
चाय फीकी
फिज़ाएं खामोश
धूप में भी
सर्दी थी
जब तुम गए
मैं कहाँ रहा
अपने ही अंदर
टूटती आदतों के पीछे
उलझता रहा
हर दिन
हर रात
सीखा
तुम्हारे बिना
जीना
बेमन ही सही
पर जी लिया
फिर अचानक
तुम लौटे
वो मुस्कान लिए
जिससे मैं कभी बच ही नहीं पाया
अब
मैं डरता हूँ
खुद से
कि फिर वही
आदत बनोगे
फिर वही
तुम बिन अधूरापन
मेरी सांसों में बस जाओगे
बिना पूछे
बिना कहे
अब जो
तुम वापस आई हो
कैसे कहूँ
कि मैंने तुम्हारे बिना
रहना सीख लिया है
पर रहने का मतलब
जीना नहीं होता
अब
मैं आदत नहीं
तुम्हें फिर से
अपना बनाना
चाहता हूँ
ताकि
फिर टूटूं
पर इस बार
पूरी तरह
तुममें
हमेशा के लिए
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