Saturday, 17 May 2025

कहीं गुम हो गए तुम

 तुम यूँ अचानक चली गई,

जैसे सुबह की ओस बिन कहे सूख जाए,

ना कोई अलविदा, ना शिकवा,

बस एक सन्नाटा छोड़ गई मेरे भीतर।


वज़ह भी नहीं बताया तुमने,

क्यों गई, कहाँ गई, किस लिए गई…

तब मन में थोड़ा रोष था तुम्हारे लिए,

कि कैसे तुम इतनी बेरहम हो सकती हो।

और थोड़ा पछतावा भी था अपने लिए,

कि मैंने तुम्हें रोक क्यों नहीं लिया…

कैसे मैं इतना कमजोर था

कि अपने सबसे अपने को जाते देखता रहा

और कुछ भी न कर सका।


दिल बार-बार पूछता है —

क्या मेरी मोहब्बत इतनी अधूरी थी

कि तुम उसे छोड़ चले गई?


ऐसे में,

बस तुम्हीं थी

जो इस दिल को सम्भाल सकती थी

तुम्हारा एक आलिंगन, एक मुस्कान,

शायद सब दर्द मिटा देती…


पर तुम थी कहाँ?

तुम तो दूर जा चुकी थी,

मेरी नज़रों से दूर,

मेरे शहर से दूर,

मेरे हर ख़्वाब से भी दूर।


कहीं गुम हो गई थी तुम…

जैसे हवा में घुल गई हो कोई ख़ुशबू,

जिसे पहचान तो सकता हूँ,

पर पकड़ नहीं सकता।


मैंने तुम्हें हर कोने में ढूँढा —

हमारी पसंदीदा गलियों में,

लाइब्रेरी की उस खिड़की के पास,

जहाँ तुम किताब पढ़ती थी

और मैं तुम्हारी आँखें।


तुम्हें ढूँढता भी तो कैसे…

तुमने कोई पता नहीं छोड़ा था,

ना कोई निशान,

ना कोई वादा,

बस यादें…

जो हर रोज़ सीने में चुभती हैं।


अब जब रात होती है

तो तन्हाई और गहरी हो जाती है।

तारों से पूछता हूँ मैं —

क्या उन्होंने तुम्हें देखा है कहीं?

हवा से कहता हूँ —

अगर वो तुम्हारे पास से गुज़रे हों,

तो मेरी सिसकी उनके कानों तक पहुँचा देना।


मैं तुम्हें दोष नहीं देता,

शायद तुम टूट चुकी थी

या मैं तुम्हें थाम न सका…

पर अब भी,

हर साँस में तुम्हारा नाम है,

हर धड़कन में एक दुआ है —

कि जहाँ भी हो, खुश रहो…


और कभी अगर लौटने का मन हो

तो यह दिल आज भी

उसी जगह,

उसी इंतज़ार में

धड़क रहा है…

सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए

No comments:

Post a Comment