जब तू लौटी,
तो कोई दरवाज़ा नहीं खुला,
एक बंद सीने की साँकल
अपने आप टूट गई।
मैंने तुझे देखा,
और उस एक पल में
अपने सारे जन्म
तेरे सामने रख दिए।
तेरी आँखों में
वही इंतज़ार था,
जो मेरी रूह में
सालों से पनाह माँग रहा था।
हम एक-दूसरे से
कुछ कह नहीं पाए—
पर लब कांपे,
और एक आँसू
तेरे गाल से फिसलकर
मेरी उँगली में समा गया।
वो स्पर्श
मेरी रूह ने पी लिया,
जैसे किसी सूखी धरती ने
पहली बारिश चख ली हो।
तू कुछ पास आई…
धीरे-धीरे…
जैसे कोई टूटा वादा
खुद चलकर निभने आ गया हो।
तेरे हाथों ने
मेरे काँपते कंधे को छुआ,
और उस एक छुअन में
मुझे वो ठंडक वो सुकून मिला
जो तेरे जाने के बाद
कहीं छूट गया था
हम गले मिले…
पर ये आलिंगन
जिस्मों का नहीं था,
ये दो आत्माओं का
लंबा, भारी, मौन विलाप था—
जो अब जाकर थमा।
तेरे बालों में
चेहरा छिपाकर
मैं फूट पड़ा।
वो रोना
जो मैंने सालों से रोका था—
आज तेरे कंधे ने आज़ाद कर दिया।
तू कुछ नहीं बोली—
बस मेरी पीठ सहलाती रही,
और उसी में
मैंने पूरा जीवन जी लिया।
फिर तू मुझसे थोड़ी दूर हुई,
मेरी आँखों में झाँककर
हौले से अपने होंठ
मेरे माथे से लगा दिए।
वो चुम्बन—
ना वासना था,
ना वादा,
वो एक शांत स्वीकार था
कि अब कभी बिछड़ेंगे नहीं।
उसके बाद
तेरे होठ मेरे होठों से मिले…
धीरे, कांपते हुए…
जैसे दो बर्फ़ के टुकड़े
धीरे-धीरे
एक-दूसरे में पिघल रहे हों।
मैंने आँखें बंद कर लीं,
और वहाँ सिर्फ तू थी—
तेरा स्वाद,
तेरी साँस,
तेरा हर वो अहसास
जो अब मेरी पहचान बन गया।
उस चुम्बन में
ना कोई हड़बड़ी थी,
ना कोई भय,
वो बस एक थमी हुई साँस थी—
जिसमें दो रूहें
हमेशा के लिए एक हो गईं।
तू लौटी है…
तो जैसे मैं फिर से
पैदा हुआ हूँ।
अब कोई डर नहीं,
कोई दूरी नहीं,
कोई जन्म,
कोई मृत्यु
हमसे बड़ी नहीं रही।
अब जो हम मिले हैं,
तो ये मिलन—
खुदा की आखिरी कविता है।
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