Sunday, 18 May 2025

कच्चे प्यार की खामोशियाँ

स्लेट सी कोरी उम्र थी,

जहाँ दिल ने पहली बार लिखा — तुम।


न नज़रें बोलती थीं,

न लब कुछ कहते थे,

पर दिल…

हर धड़कन में तुम्हें ढूंढता था।


भीड़ में भी तन्हा थे हम,

एक-दूसरे की आँखों में बसे हुए।

बातें कम थीं,

पर ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहती थीं।


तुम्हारा मुस्कुराना —

जैसे मेरी सुबह।

मेरा नाम तुम्हारे होठों पर —

जैसे कोई दुआ अधूरी।


कॉलेज की गलियारों में

छोटे-छोटे लम्हे चुरा लेना,

दूसरों की नजरों से

अपने दिल को छुपा लेना।


कोई वादा नहीं,

कोई कसमें नहीं,

बस एक मासूम यकीन —

कि तुम हो, और मैं हूँ 


हम चिट्ठियाँ छुप-छुप के 

लिखते थे,

तुम खुशबू से भीगे खत

कभी किताबों में,

कभी हाथों में थमा देती थी।


और फिर

लाइब्रेरी में किताबों के बीच रख

तुम्हारे खतों को पढ़ना

और फिर खुद ही कुछ सोच कर

मुस्कुरा देना

सब कितना अपना लगता था


बारिश की बूंदों में

तुम्हारा नाम ढूँढा मैंने,

और धूप में

तुम्हारे होने की गर्माहट।


पलकों के कोनों में

सपनों का रंग था —

तुम्हारे साथ चलने का,

कभी ना बिछड़ने का।


माँ-बाप की डाँट से डरता भी था

पर तुम्हारा नाम सुनकर

दिल मुस्कुरा उठता।


ये प्यार —

ना बड़ा था, ना छोटा,

बस सच्चा था,

जैसे बचपन की नींद।


कभी लैब के पीछे,

तो कभी पुराने पीपल के नीचे

एक झलक,

एक आहट,

एक मुस्कान —

पूरा दिन बना देती।


तब प्यार में

कोई और दूसरी चाह नहीं थी,

बस रूह की बात थी,

जिसमें सिर्फ़

"तुम और मैं" थे।


आज भी,

जब उन गलियों से गुजरता हूँ,

वो मासूमियत लौट आती हैं

एक कोरे कागज़ पर —

जहाँ आज भी मैं बस तुम लिखता हूँ।

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