थक गया हूं मैं
अब ये बोझ ढोते-ढोते...
कंधे तो मेरे थे,
पर बोझ...
हर किसी की ज़िंदगी का था।
मैं उम्र भर
किसी और की ज़रूरत बना रहा,
कभी बेटे की रीढ़,
कभी दोस्त का सहारा,
कभी परिवार की दीवार।
पर कभी किसी ने
ये नहीं पूछा—
"तेरा क्या हाल है?"
हर दिन
किसी और के हिस्से की रौशनी
अपनी आँखों में भर ली।
और रात?
रात मेरी थी…
बस नींद मेरी नहीं थी।
कारवाँ था,
हसरतें थीं,
चाहने वाले भी…
पर सब अपने लिए।
मैं बस रास्ता बना…
और चलता रहा
तनहा…
हर किसी के साथ।
हर मोड़ पर
मुस्कान ओढ़ ली,
दिल के ज़ख़्म
किसी ने देखे नहीं।
मैं रोया भी—
पर अंदर,
बिना आवाज़ के।
मुझे लोग पहचानते हैं,
पर सिर्फ़
अपने रिश्ते के नाम से।
"भाई", "बेटा", "मित्र", "पति"…
पर मेरा नाम?
कब किसी ने पुकारा?
मेरा वजूद
बस एक पगडंडी बन गया,
जिस पर
सबने चलना चाहा—
पर किसी ने
कभी मेरा दर्द नहीं सुना।
मैं एक मंदिर की सीढ़ी सा था,
जिस पर
हर कोई चढ़ता गया
अपनी मुरादों के साथ—
पर कभी किसी ने
मेरे घिस जाने पर
एक फूल भी नहीं रखा।
अब ये साँसें
थकी हुई सी लगती हैं—
जैसे पूछ रही हों
हर रात—
"क्या अब हमें भी
आराम मिल सकता है?"
मैंने सब कुछ निभाया…
खुद को छोड़कर।
हर किसी की ख़ुशी में
खुद को मिटाया।
और अब जब
थोड़ी सी जगह चाहिए…
तो सब चुप हैं।
बहुत चुप।
अब बस
एक कोना चाहिए…
जहां मैं
अपनी ही थकावट से
मुलाक़ात कर सकूं।
जहां कोई सवाल न हो,
जहां कोई काम बाकी न हो।
जहां मैं
अपने अंदर
उतर सकूं…
बिना डरे।
क्योंकि
थक गया हूं मैं…
हर फ़र्ज़ निभाते निभाते।
हर दर्द छुपाते छुपाते।
हर बार
खुद को
पीछे छोड़ते छोड़ते।
अब अगर इजाज़त हो…
तो थोड़ा सा
मैं जी लूं?
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