Thursday, 22 May 2025

थक गया हूं मैं

थक गया हूं मैं,

अब ये बोझ ढोते ढोते।

हर रिश्ते की ज़ंजीर

चुपचाप पहनता रहा

बिना शोर,

बिना शिकायत।


कारवाँ था,

शोर था,

चाहने वाले भी थे बहुत…

मगर मैं…

चलता रहा

तनहा, तनहा।


हर मोड़ पर

भीड़ थी,

हर मोड़ पर

मैं नहीं था।

बस मेरे कंधे थे

और दूसरों की ज़िंदगियों का वज़न।


कभी माँ की चिंता,

कभी पिता की उम्मीद,

कभी भाई की लड़ाई,

कभी दोस्तों की ज़रूरतें…

हर जगह मैं था,

मगर सिर्फ़ एक काम की तरह।


मेरे हिस्से का सुकून

किसी और की शाम बना,

मेरे हिस्से का सपना

किसी और की सुबह।


हर पल

अपनी डगर चला,

बिना नक्शा,

बिना दिशा।

सब थे वहां,

मगर मैं न था

कहीं भी।


हर नाम पुकारा गया,

पर मेरा नहीं।

हर जीत में तालियाँ थीं,

पर मेरे हिस्से

सिर्फ़ थकन आई।


मेरा वजूद

बस एक पुल बना—

जिस पर सब गुज़रे,

पर कोई रुका नहीं

पूछने कि

तू खुद कब गुज़रेगा?


अब ये साँसें

गवाह हैं—

कि जीते हुए भी

मैं कभी जिया नहीं।


अब थक गया हूं मैं,

हर बोझ उठाते उठाते,

हर मांग पूरी करते करते,

हर आह दबाते दबाते।


अब कोई सपना नहीं बचा

जो सिर्फ़ मेरा हो।

अब कोई शब्द नहीं बचा

जो सिर्फ़ मुझे पुकारे।


मैं एक खाली दीवार सा हूँ—

जिस पर सबने

अपनी तस्वीरें टाँगी,

और मैं

धीरे-धीरे

मिटता गया।


अब चाहता हूं

एक कोना,

जहां कोई और न हो—

सिवाय मेरे।

जहां कोई काम न हो,

सिवाय

खुद को समझने के।


अब चाहता हूं

एक नाम,

जो सिर्फ़ मेरा हो।

एक साया

जो सिर्फ़ मेरा हो।

एक सुकून

जो उधार न हो।


क्योंकि थक गया हूं मैं,

अब ये बोझ ढोते ढोते।

और सोचता हूं—

क्या अब

मुझे खुद से

इजाज़त है

थोड़ा सा जीने की?




No comments:

Post a Comment