तुम यूँ अचानक चले गए,
जैसे सुबह की ओस बिन कहे सूख जाए,
ना कोई अलविदा, ना शिकवा,
बस एक सन्नाटा छोड़ गए मेरे भीतर।
वज़ह भी नहीं बताई तुमने,
क्यों गए, कहाँ गए, किसके लिए गए…
तब मन में थोड़ा रोष था तुम्हारे लिए,
कि कैसे तुम इतने बेरहम हो सकते हो।
और थोड़ा पछतावा भी था अपने लिए,
कि मैंने तुम्हें रोक क्यों नहीं लिया…
कैसे मैं इतनी कमजोर थी,
कि अपने सबसे अपने को जाते देखती रही
और कुछ भी न कर सकी।
दिल बार-बार पूछता है —
क्या मेरी मोहब्बत इतनी अधूरी थी
कि तुम उसे छोड़ चले गए?
ऐसे में,
बस तुम्हीं थे
जो इस दिल को सम्भाल सकते थे।
तुम्हारा एक आलिंगन, एक मुस्कान,
शायद सब दर्द मिटा देती…
पर तुम थे कहाँ?
तुम तो दूर जा चुके थे,
मेरी नज़रों से दूर,
मेरे शहर से दूर,
मेरे हर ख़्वाब से भी दूर।
कहीं गुम हो गए थे तुम…
जैसे हवा में घुल गई हो कोई ख़ुशबू,
जिसे पहचान तो सकता हूँ,
पर पकड़ नहीं सकता।
मैंने तुम्हें हर कोने में ढूँढा —
हमारी पसंदीदा गलियों में,
लाइब्रेरी की उस खिड़की के पास,
जहाँ तुम किताब पढ़ते थे
और मैं तुम्हारी आँखें।
तुम्हें ढूँढती भी तो कैसे…
तुमने कोई पता नहीं छोड़ा था,
ना कोई निशान,
ना कोई वादा,
बस यादें…
जो हर रोज़ सीने में चुभती हैं।
अब जब रात होती है
तो तन्हाई और गहरी हो जाती है।
तारों से पूछती हूँ मैं —
क्या उन्होंने तुम्हें देखा है कहीं?
हवा से कहती हूँ —
अगर वो तुम्हारे पास से गुज़रे हों,
तो मेरी सिसकी उनके कानों तक पहुँचा देना।
मैं तुम्हें दोष नहीं देती,
शायद तुम टूट चुके थे
या मैं तुम्हें थाम न सकी…
पर अब भी,
हर साँस में तुम्हारा नाम है,
हर धड़कन में एक दुआ है —
कि जहाँ भी हो, खुश रहो…
और कभी अगर लौटने का मन हो
तो यह दिल आज भी
उसी जगह,
उसी इंतज़ार में
धड़क रहा है…
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए
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