जब भीतर मचा हो शोर बहुत,
जैसे तूफ़ान उठे हों जज़्बातों के,
हर सोच लगे कोई चीखती हुई बात,
हर धड़कन करे कोई अनकहा सवाल।
फिर भी न जाने ये जुबाँ खामोश क्यों हो जाती है,
किस डर से, किस आस में ये चुप रह जाती है।
क्या कह देने से सब कुछ बिखर जाएगा?
या सच का बोझ कोई सह नहीं पाएगा?
शब्दों के पास जो कशिश थी पहले,
अब वो भी जैसे किसी परछाईं में गुम हो गई है।
अब हर सन्नाटा, हर मौन कुछ कहता है,
पर जुबाँ है कि बस… चुप रह जाती है।
जब भीतर मचा हो शोर बहुत,
जैसे तूफ़ान उठे हों जज़्बातों के,
हर सोच लगे कोई चीखती हुई बात,
हर धड़कन करे कोई अनकहा सवाल—
फिर भी न जाने ये जुबाँ खामोश क्यों हो जाती है,
किस डर से, किस आस में ये चुप रह जाती है।
क्या कहने से बिखर जाएगा सब कुछ?
या शायद बोल देने से सच सामने आ जाएगा?
या फिर इस ख़ामोशी में ही कोई सुकून छुपा है,
कोई ऐसा ज़ख्म, जो सिर्फ़ सन्नाटे में ही सिसकता है।
शायद इसलिए जब भीतर मचा हो शोर बहुत,
हमारी जुबाँ… बस ख़ुद से ही नज़रें चुरा लेती है।
जब भीतर मचा हो शोर बहुत,
और जुबाँ अपनी ही परछाईं से डर जाए,
तब कहीं एक कोना दिल का रोशनी माँगता है,
कोई किरन, कोई शब्द—जो बंधनों को तोड़ जाए।
कभी एक आह भी दुआ बन जाती है,
कभी चुप्पी में भी एक सवेरा उतर आता है।
वक़्त की तहों में छुपी होती है राहत भी,
हर तूफ़ान के बाद एक नर्म सी बौछार आती है।
जो कहा न गया, वो भी समझा जाता है कभी,
जब कोई अपने दिल से दिल की बात सुनने आता है।
तो हाँ, जब भीतर मचा हो शोर बहुत,
उम्मीद अब भी रहती है… ख़ामोशी के पार जाती है।
शायद इस चुप्पी में कोई सुकून छुपा है,
या कोई ऐसा ज़ख्म जो बस भीतर ही सिसकता है।
एक नाज़ुक रेशा, जो टूटने से डरता है,
या कोई ख़्वाब जो अभी पूरी तरह जगा नहीं।
पर इसी ख़ामोशी में कहीं एक उम्मीद पलती है,
जैसे अंधेरे में एक कोना रौशनी माँगता है।
एक नर्म सी दस्तक दिल के दरवाज़े पर,
जो कहती है — मैं हूँ, तू कह ले अब।
वक़्त की तहों में छुपी होती है राहत भी,
हर तूफ़ान के बाद एक नर्म सी बौछार आती है।
जो कहा न गया, वो भी समझा जाता है कभी,
जब कोई अपने दिल से दिल की बात सुनने आता है।
तो हाँ, जब भीतर मचा हो शोर बहुत,
और जुबाँ खामोश हो जाए बिना वजह,
यक़ीन रखना… कहीं न कहीं कोई आवाज़
इस ख़ामोशी के पार भी सुनाई दे जाती है।
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