Friday, 16 May 2025

ज़िंदगी की जद्दोजहद में

ज़िंदगी की जद्दोजहद में

सब कुछ बिखर कर रह जाता है,

ख़्वाब आँखों से फिसलते हैं

जैसे रेत की मुट्ठियाँ।

हर सुबह एक नई उम्मीद में जगते हैं,

पर हर शाम कुछ और टूट जाते हैं।


अगर कुछ रह जाता है पास तो बस

कुछ मलालें, कुछ शिकवे, कुछ गिले—

जिन्हें ना किसी से कह पाते हैं,

ना खुद से भुला पाते हैं।

जैसे अधूरे खत जिनमें नाम नहीं होता,

या पुराने गानों की वो धुन

जो कभी-कभी दिल को चीर जाती है।


ज़िंदगी की दौड़ में हम जब भी मिले

तो मुस्कुराहटें ओढ़े हुए मिले,

पर आँखों के कोनों में

थकावट की नमी छुपी होती थी।

हम सब अपनी-अपनी मुखौटे लगाए

"ठीक हूँ" की रस्म निभाते रहे।


समाज की उम्मीदों के आईने में

खुद की तस्वीर अक्सर धुंधली दिखती है।

जो बनना चाहते थे,

वो बनने की इजाज़त कभी नहीं मिली,

और जो बन गए,

वो शायद अपने नहीं थे।


समय, जैसे एक कठोर शिक्षक—

हर गलती की सज़ा देता है

बिना समझाए, बिना सहलाए।

वो बचपन की खिलखिलाहटें,

अब गंभीरता में गुम हो गई हैं।

अब तो हर दिन

बस एक "काम" बन कर रह गया है।


हमने समाज की हर परिभाषा को अपनाया,

"अच्छा बच्चा", "काबिल इंसान",

"संस्कारशील", "कर्तव्यनिष्ठ",

मगर अंदर कहीं एक सिसकी दबी रह गई—

"मैं कौन हूँ?"


इस जद्दोजहद में

रिश्ते भी थक गए हैं शायद,

अब संवाद नहीं,

सिर्फ औपचारिकताएं बची हैं।

कुछ दोस्त वक्त के साथ छूट गए,

कुछ अपने भी अजनबी से हो गए।


फिर भी चलते हैं,

क्योंकि रुकना तो जैसे मना है—

समाज की घड़ी में थकावट का कोई वक्त नहीं।

हर मोड़ पर एक और "उम्मीद"

हमें फिर से आगे खींच लेती है।


शायद इसी का नाम जीवन है—

एक अंतहीन संघर्ष,

जहाँ खोकर भी कुछ पाने का भ्रम

हमेशा जीवित रहता है।

और हम, उसी भ्रम के सहारे

हर दिन एक नई हार को

"अनुभव" कह कर जीते हैं।


मगर हर अंधेरे में एक रेखा चमकती है,

हर टूटन के बाद कोई किरण फिर झलकती है।

जिस्म थकते हैं, पर रूह कभी नहीं थमती—

कहीं भीतर एक आवाज़ कहती है,

"अभी ख़त्म नहीं हुआ सब कुछ,

तू अब भी ज़िंदा है,

तू अब भी खुद को बदल सकता है।"


ये सच है—

हमने बहुत कुछ सहा,

पर क्या कभी खुलकर जिया?

अब सवाल उठता है—क्यों नहीं?

क्यों हर बार समाज की जंजीरों में

अपने पंख क़ैद कर दिए?


अब वक़्त है थोड़ा पूछने का,

थोड़ा चिल्ला देने का—

"मैं क्यों नहीं हो सकता वैसा

जैसा मैं होना चाहता हूँ?"

जो मापदंड समाज ने गढ़े,

क्या वे मेरी साँसों से बड़े हैं?


ये विद्रोह मेरा युद्ध नहीं, मेरी मुक्ति है।

मैं अब झुकूँगा नहीं हर परंपरा के आगे,

जो मेरी आत्मा को ही निगल जाए।

मैं कहूँगा, मैं लिखूँगा,

मैं जिऊँगा—

अपने नाम से, अपनी शर्तों पर।


और जब ये यात्रा तय होगी,

जब ये भ्रम और भीड़ पीछे छूट जाएगी—

शायद वहाँ मिलेगा मुझे मेरा असली ‘मैं’।

वो जो कभी एक कोने में चुप बैठा था,

जो हर रात अपने सपनों से बातें करता था,

जो टूटता नहीं था,

बस दबा दिया गया था।


स्व-खोज की ये राह सरल नहीं,

काँटों से भरी है,

मगर इन काँटों में भी

एक गंध है, एक पहचान है।

और जब मैं उस अंतिम मोड़ पर पहुँचूंगा,

तो पीछे मुड़कर मुस्कुरा पाऊँगा—

कि हाँ, मैंने जिया,

जैसा मैं चाहता था।


तो ऐ ज़िंदगी,

तेरी जद्दोजहद से डर नहीं लगता अब,

तेरे सवालों से दोस्ती कर ली है मैंने।

समाज, समय, और संस्कारों की लकीरों के बीच

मैंने अपनी एक राह बना ली है—

जिस पर मैं अकेला चल रहा हूँ,

मगर पहली बार—अपने जैसा।




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