Sunday, 29 June 2025

क्यों नहीं बताया

(उसकी ओर सेबरसों बाद)

क्यों नहीं बताया
कि तुम जा रहे हो?
क्यों मेरी आँखों में
छोड़ गए वो सवाल
जिनका जवाब कभी लौटकर नहीं आया?

मैं सोचती रही
क्या मैंने कोई ग़लती की थी?
क्या तुम्हारा प्यार
सिर्फ़ कुछ दिनों का था?
या मैं ही सिर्फ़ खतों की आदत बनकर रह गई थी

पर आज
जब सुना
कि तुम मेरे खत
मंदिर के हवन में जलाकर रोए थे,
तो कुछ टूटा नहीं
बल्कि कुछ पूरा हुआ मेरे अंदर।

मेरे खत
जिन्हें मैंने
अपने रूमाल की तह में रखा था,
तेरे नाम से पहले चूमा था,
हर लफ्ज़ को
तेरे दिल की थकान का मरहम समझकर लिखा था
वो खत तुमने
राख बना दिए
पर मेरी मोहब्बत को कभी जलाया नहीं।

तुम जानते थे
दुनिया की नज़रों से
मुझे कैसे बचाना है,
पर तुम्हें नहीं पता था
कि मेरे लिए
तुम्हारे लिखे लफ्ज़ ही
मेरी दुनिया थे।

तुम्हारा हर "प्यारी",
हर "मेरी",
मेरे होने की तस्दीक़ थे।
तुम्हारे खत
मेरी साँसों का हिस्सा थे।

अब सोचती हूँ
उस शाम जब तुम मंदिर की सीढ़ियों पर थे,
मैं कहीं आसपास होती तो क्या करती?
शायद दौड़कर
तुमसे तुम्हारा वो आख़िरी खत छीन लेती।
कहती
"जला दो मुझे भी साथ में,
पर मेरी मोहब्बत को राख मत बनाओ…"

अब समझ में आया
कि तुम दूर इसलिए नहीं हुए
क्योंकि प्यार कम हो गया था,
बल्कि इसलिए
क्योंकि प्यार बेहिसाब था
और तुम्हें डर था
कि ये दुनिया मुझसे
वो सब छीन लेगी
जो सिर्फ़ तुम्हारा था।

पर सुनो
तुम मुझे तब भी नहीं समझ पाए।
मैं तुम्हारी हो चुकी थी
इस दुनिया से नहीं डरी थी,
मैं डरती थी सिर्फ़ तुम्हारी खामोशी से।

मैंने चाहा था
कि तुम हर तूफ़ान से पहले
मेरे कंधे पर सिर रखो
ना कि खुद को अकेला कर लो।

तुम्हारे जले हुए खत
अब मेरी आँखों में धुआँ बन गए हैं।
हर रात जब पलकें बंद करती हूँ,
तो वो राख
फिर से लफ्ज़ बन जाती है।

और एक सवाल
अब भी बिन जवाब है

"क्यों नहीं बताया... कि तुम जा रहे हो?"

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