Sunday 12 August 2012

मेरा सोलह श्रृंगार

अपने पिया जी का प्यार मैं

उनके हर पल का दुलार मैं

उनको रिझाऊं बार बार मैं

करके अपना सोलह श्रृंगार मैं


सजा के मांग सिन्दूर से उनकी

लगाऊं बिंदिया मैं पसंद की उनकी

आँखों में काजल कजरारे लगाकर

शरमाऊंगी मैं उनसे आँखें मिलाकर


माथे पे टीका कानों में फूल 

नथनिया अपनी कैसे मैं जाऊं भूल

हार नौलखा गले में डाल के

चूडियाँ खनकाऊँ उनकी बाहों में झूल


लाल जोड़ा मेरा अंगूठी औ' बाजूबंद 

लचके कमर पे मेरा प्यारा कमरबंद

हाथों में लगा के मेहँदी उनके नाम की

बन गयी दीवानी मैं अपने श्याम की


पायल बिछुए डाल के पांव में

रहूँ मैं अपने पिया जी की छांव में

इत्र की खुशबू मेरे बदन की

फ़ैली सारी उनके गांव में


करके मैं अपना सोलह श्रृंगार

खड़ी हूँ अपने पिया जी के द्वार

अभी पिया जी मेरे आयेंगे

मुझे देख देख इतरायेंगे


मैं वारी न्यारी हो जाऊंगी

बाहों में पिया के खो जाऊंगी

सुहाग मेरा यूँ ही बना रहे

आशीष ईश्वर का सदा रहे


( सोलह श्रृंगार के सारे श्रृंगार कविता में अलग से झांक रहे हैं )

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