(एक रूहानी प्रेम की अधूरी पूरी कहानी)
हम रोज़ मिलते थे —
ना जाने कैसे,
ना जाने कब से —
कभी कॉलेज की रंगीन भीड़ में
तुम यूँ मिलतीं
जैसे कोई सुकून भरी हवा
भीड़ को चीरती हुई
सिर्फ मुझे छू कर जाती हो।
कभी स्टेडियम की ऊँची सीढ़ियों पर,
जहाँ तुम्हारी चुप मुस्कान
मेरी जीत की सबसे बड़ी ट्रॉफी लगती।
कभी कॉलेज की कैंटीन में,
जहाँ भीड़ के शोर में भी
तुम्हारी नज़रें
मेरी कॉफी के कप से टकरा जातीं।
और सबसे ज़्यादा —
हम मिलते थे उस जगह
जहाँ सन्नाटा भी
मोहब्बत की आवाज़ बन जाता था…
लाइब्रेरी।
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वहाँ हम घंटों साथ होते थे,
पर शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
किताबें खुलती थीं,
पर हम तो बस एक-दूसरे की पलकों को पढ़ते थे।
बंद किताबों के बीच
तुम्हारी खुली आँखें
मुझसे कहानियाँ सुनती थीं।
कभी बुकशेल्फ के आर-पार से
तुम्हारी नज़रें मुझे ढूंढतीं,
तो मैं जानबूझकर
थोड़ा और वहीं रुक जाता —
कि वो खोज कभी खत्म न हो।
कभी आमने-सामने बैठ कर,
पन्ने पलटने का बहाना होता,
पर हम तो सिर्फ
एक-दूसरे के चेहरों के भाव पढ़ते थे।
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जब हमें मौक़ा मिलता,
तो हम एकांत में
हाथों में हाथ डाले बैठ जाते —
घंटों,
बिना कोई घड़ी देखे,
बिना कोई बात किए।
तुम अपना सर
धीरे से मेरे कंधे पर टिका देतीं,
और मैं —
अपने हर स्पर्श से
तुम्हारी रूह को छूने की कोशिश करता।
तुम्हारी बंद आँखें
मेरे भीतर रोशनी भर देती थीं,
और मैं तुम्हारे हाथों की गर्मी से
अपने वजूद को जिंदा महसूस करता।
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तुम मेरे लिए
कोई साधारण लड़की नहीं थीं…
तुम एक तोहफ़ा थीं —
वो भी खुदा की दस्तक के साथ मिला हुआ।
मैं तुम्हारे हर पल को
संभाल कर रखना चाहता था,
जैसे कोई ताज़ा ग़ज़ल
जिसके हर मिसरे को
सांसों में क़ैद कर लिया जाए।
पर किस्मत…
हमेशा इश्क़ से नफ़रत ही करती है शायद।
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हम अलग हो गए…
बिना कहे, बिना रोके, बिना रोए।
न कोई अलविदा…
न कोई वादा।
मैं तुम्हें कुछ नहीं कह पाया,
सिर्फ चला गया —
शायद हमेशा के लिए।
और तुम…
यही सोचती रहीं कि
मैं तुम्हें छोड़ गया,
बिना कुछ कहे।
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तुम्हारी गैर-मौजूदगी
एक भारी चुप्पी बन गई थी
मेरी हर साँस में।
ज़िन्दगी…
अब बस एक रुटीन बन गई थी —
चलते रहो,
पर अंदर कुछ भी न बचे।
मैं टूट गया था,
बार-बार —
पर हर बार तुम्हारी यादें
मुझे जोड़ती थीं,
अपने ही आँसुओं से गूंथ कर।
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मैं तुम्हें ढूंढता रहा…
हर शहर में, हर मोड़ पर,
हर चेहरे में तुम्हारा अक्स टटोलता,
हर आवाज़ में
तुम्हारी वो धीमी मीठी बोली खोजता।
वक़्त बढ़ता गया…
उम्र अपने पन्ने पलटती गई,
पर मेरे दिल की किताब
अब भी उसी पृष्ठ पर अटकी थी —
जहाँ तुम मुस्कुरा कर
मेरे कंधे पर सर रखी थीं।
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और फिर…
चौवालीस नहीं, पैंतालीस साल बाद —
तुम सामने आयीं।
मैंने तुम्हें देखा…
तुम अब भी वही थीं —
बस थोड़ी और शांत,
थोड़ी और गहराई लिए हुए।
तुम्हारी आँखें
अब भी वैसी ही थीं,
जैसे हर बात
बिना कहे कह देती थीं।
तुम्हारी मुस्कान
अब भी मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी,
वक़्त की धूल के नीचे
एक चमकती हुई चाह छुपाए।
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हम मिले —
और कुछ भी नहीं बदला था हमारे बीच,
सिवाय उम्र के।
तुम्हारे पास अब बच्चे थे,
एक सुंदर ज़िन्दगी थी,
और मेरे पास…
बीते हुए पन्नों का ढेर,
पर हर पन्ने पर तुम्हारा नाम था।
जब हमारी नज़रें मिलीं,
वो पहला पल
फिर से जिंदा हो गया।
हमारी ज़ुबानें
पहले थमी रहीं,
फिर धीरे-धीरे
शिकायतों का सैलाब बहने लगा।
पर अंत में…
हम मुस्कराए —
और उस मुस्कान में
हर शिकायत पिघल गई।
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अब हम साथ हैं,
शायद जिस्मों से नहीं,
पर रूह से —
एक-दूसरे के भीतर समाए हुए।
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कुछ प्यार
वक़्त से नहीं डरते।
कुछ रिश्ते
अल्फ़ाज़ की ज़रूरत नहीं रखते।
और कुछ कहानियाँ —
अधूरी होते हुए भी
मुकम्मल होती हैं…
जैसे हमारी कहानी।
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