एक नज़र…
बस एक नज़र थी,
और वक़्त की धड़कन थम सी गई,
दो नज़रें मिलीं —
मानो सदियों पुराना कोई वादा
यूँ ही अचानक पूरा हो गया।
वो जैसे कॉलेज में नहीं किसी मंदिर की सीढ़ियों पर खड़ी थी,
और मेरी कोई प्रार्थना स्वीकार हो गई थी
और मैं…
मैं तो सांस भी लेना भूल गया था,
जब उसकी मासूम सी अनछुई मुस्कान ने मेरे रूह को धीरे से छू लिया
न कुछ कहा, न कुछ सुना,
बस दिलों के बीच
एक मौन संवाद बह चला,
जिसे कोई भाषा नहीं चाहिए थी,
जिसे कोई शब्द समझा ही नहीं सकता था।
प्यार था वो—पहली नज़र में,
शाश्वत, निःस्वार्थ, संपूर्ण।
हम दो थे —
पर रूह तो एक ही थी,
सपनों की लकीरों में जुड़ी हुई,
जैसे चाँदनी में समाया कोई गीत
जो सदियों से अधूरा था।
पर...
किसी अदृश्य काल-रेखा ने
हमारे रास्तों को मोड़ दिया,
वो कहीं और चली गई,
मैं कहीं और बह गया —
जैसे हवाएँ उलटी दिशा में बहने लगी हों।
साल दर साल बीते…
वक़्त ने कई रंग बदले,
पर एक एहसास भीतर ठहरा सा रहा —
उसके स्पर्श की लौ,
उसकी आँखों का अनकहा वादा
वक़्त के शोर में
मुझे वापस बुलाता रहा।
मैंने कितनी बार आसमान से पूछा,
"क्या रूहें भी बिछड़ती हैं?"
और हर तारा, और चाँद
बस मुस्कुरा कर यही कहता —
"नहीं, रूहें तो बस लौट जाती हैं…"
और फिर एक दिन,
जब उम्मीद की शाख भी सूखने लगी थी,
कायनात ने अपनी रहमत बिखेरी —
वो वापस लौटी।
वो लौटी…
हाथ में वही बिछड़ा हुआ गीत लिए,
आँखों में वो ही नमी,
जैसे कोई अधूरा सपना
उसकी आँखों में फिर से जी गया हो।
मैंने बस उसकी ओर देखा —
और वो मुस्कराई,
उस मुस्कान में वो सारी सदियाँ छिपी थीं
जो हमने अपनी अपनी तन्हाईओं में जुदाई की आग में जलते हुए अलग-अलग बिताई थीं।
हमने एक-दूजे को थामा,
ना वक़्त बीच में आया, ना कोई लफ्ज़,
बस रूहों का स्पर्श —
जो हर जन्म, हर आसमान में
पहले ही से तय था।
हम फिर से एक हैं — उसी तरह
दो बदन, एक जान
जैसे फिर से दो बूंदें एक होकर
समंदर से मिलने लौट आई हों।
और हमारे इस प्यार से
कायनात ने फिर से एक बार
ये साबित कर दिया —
कि सच्चा प्यार कभी मरता नहीं,
और रूहें कभी जुदा नहीं होतीं।
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