Friday, 27 June 2025

पहली नज़र का जादू

 "पहली नज़र का जादू"

 

वो दिन कुछ खास था हमारा,

जब चुपके से देखा था तेरा नज़ारा 

कॉलेज के उस भीगे मौसम में,

खिल उठी थी कोई पहली बहार सी मन में।

 

झुकी हुईं थीं पलकें तुम्हारी 

जैसे चाँदनी ओढ़े कोई खामोश कहकशां।

मैं भी ख़ामोश, तुम भी मौन,

मगर दिलों का शोर था बेजुबां।

 

नज़रें मिलीं... वक़्त थम गया,

हमारी रूहों का रंग जम गया।

ना कुछ कहा, ना कुछ सुना,

फिर भी सब कुछ कह गए हम।

 

धीरे-धीरे वक्त ने सीढ़ियाँ चढ़ीं,

हर मुलाकात हमें कुछ और करीब ले आई।

एक दिन, जब धड़कनों ने हामी भरी,

मैंने तेरे कांपते हाथों को थाम लिया था 

 

तू थमी थी, मैं भी रुका था,

जैसे सांसों में कुछ ठहर सा गया था।

तेरी पलकों की कम्पन में

मैंने खुद को बहकते देखा था।

 

मैंने तुम्हें अपनी बाँहों में लिया,

जैसे कोई अधूरी दुआ पूरी हो गई।

तुम मेरे सीने से लगकर

जैसे सदी भर की थकान भूल गई।

 

फिर मेरे होंठ तेरे कांपते लरज़ते होंठों से मिले,

और उस पल में पूरी कायनात सिमट आई।

धड़कनों का संगीत बज उठा,

और ख़ामोशी भी सरगम गाने लगी।  

 

साँसों ने साँसों को छुआ,

मन ने मन से बात की।

कोई अल्फ़ाज़ नहीं थे उस पल,

पर हर बात इबादत सी हो गई।

 

तभी कोई आहट हुई अचानक,

और हमारा मिलन वहीं ठहर गया।

मगर उस पल के जादू ने

हमें उम्र भर के लिए बाँध दिया।

 

फिर मुलाक़ातें सिलसिले में ढलने लगीं,

हर शाम हमें कुछ और पास ले आई।

वो बारिश की रातें, वो चाँदनी में बातें,

हमारी मोहब्बत को कविता बना गईं।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 2

(मुलाक़ातों का सिलसिला)

 

फिर आई सरस्वती पूजा की बेला,

जब कॉलेज के रंगों ने रचाया मेला।

हॉस्टल की सजावट में जुटे हम सब,

जैसे हर दीवार पर टंगा था 

कोई खामोश सा ख्वाब अब  

 

उस दिन तेरे घर गए हम सब मिलकर,

कुछ वस्त्र, कुछ सामग्री लेने सहम कर।

तू जब कपड़े देने आई झिझकते हुए,

मेरे दिल ने धड़कना शुरू किया धीरे-धीरे।

 

तेरे हाथों में वो कपड़ों की गठरी थी,

पर मेरी नज़रें किसी और ही गुत्थी में उलझी थीं।

जब तूने कपड़े सौंपे, मैं ठहरा नहीं,

तेरे कपड़ों के भीतर से 

तेरा हाथ पकड़ लिया कहीं।

 

तेरा चेहरा एकदम से सहम गया,

जैसे चाँद पर किसी बदली का साया पड़ गया।

मगर मेरी मुस्कान थी नर्म और धीमी,

और मेरे हाथ लगी  

तेरे हाथों की खुशबू भीनी भीनी 

 

फिर चुपचाप छोड़ दिया वो हाथ,

मगर उस छुअन में बस गया एक साथ।

ना तू कुछ बोली, ना मैं कुछ कह पाया,

पर उस पल ने मुझे बहुत तड़पाया

 

फिर आई पूजा की पावन घड़ी,

जब धूप और दीप से महकी हवा बड़ी।

मैं स्टेज के पीछे, व्यस्त था प्रसाद में,

तेरी आँखें मुझे ढूंढ रही थीं भीड़ में, जज़्बात में।

 

जब तूने मुझको वहाँ नहीं पाया,

तब सीधे स्टेज के पीछे चली आई तेरी काया।

प्रसाद लेने का बहाना तूने बनाया था प्यारा,

मगर इरादा तो था 

बस मुझे देख करना एक इशारा।

 

वहाँ, जब नज़रों की ज़ुबां बोली,

मोहब्बत ने अपनी रंगत खोली 

ना स्पर्श, ना बात, ना कोई आवाज़,

बस नज़रें कह रही थीं सैकड़ों राज़।

 

तू मुझे देख, झट से नज़रें चुरा लेती,

हर बार जैसे खुद से भी खुद को छिपा लेती।

तेरे गालों की लाली कुछ और ही कहती,

तेरी घबराहट हर बार मेरी जीत लिख देती।

 

हर मुलाक़ात हमें कुछ और करीब लाती गई,

तेरे मेरे बीच की दीवारें खुद खुद गिराती गईं।

तू थी झिझकी सी, मैं था बेक़रार,

हम दोनों में बस रहा था एक अलहदा सा प्यार।

 

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 3

(नज़रों की नमी, दिलों की लगन)

 

धीरे-धीरे वक्त बढ़ा,

मुलाक़ातें अब छुप-छुप के नहीं रहीं ज़रा।

क्लास की दीवारें भी कुछ समझने लगीं,

हमारी खामोश नज़रों की बातें पढ़ने लगीं।

 

कभी लैब के कोने में,

कभी क्लास की सीढ़ियों के किनारे,

कभी आम के पेड़ों के नीचे,  

बस नज़रें मिलतीं, रुकतीं, झुकतीं,

और दिल हमारे... कुछ और पास सिमट जाते 

 

कभी कोई किताब वापसी का वादा 

कभी कुछ कहने का अधूरा इरादा।

पर हर बार हम बस थोड़े और करीब जाते,

जैसे मौन में भी इकरार के शब्द बुन जाते।

 

फिर आया वो दिन,

जब हमारी परीक्षा थी — 

और मन था व्याकुल, ग़मगीन।

मैं समय से पहले पहुँच गया चुपचाप,

पीछे अपनी सीट पर बैठा

तुम्हारे इंतज़ार में अपने आप।

 

तुम आईं — तुमने देखा 

मैं कहीं नज़र नहीं आया 

फिर तुम थोड़ा घबराई 

तुम्हारी आँखें सकुचाई 

जब तुमने मुझे नहीं देखा कहीं,

तो मन में डर बैठा — "कहीं वो आया या नहीं?"

 

तुमने बिना कुछ कहे

अपना एक पेन स्टाफ को थमाया।

और धीमी आवाज़ में बोलीं

उसे दे देना, शायद आया हो वोपीछे कहीं …”

 

वो पेन मेरे हाथ में आया,

उसके संग तेरा संदेश भी लाया।

और जब उसने तुम्हें लौटकर बताया

"हाँ, पेन दे दिया उसे",

तब तेरे चेहरे पर जो राहत छाई,

वो एक इबादत सी मुस्कान लाई।

 

क्या ये इश्क़ नहीं था,

जो तेरे हर डर में मेरा नाम था?

तेरे एक पेन में जो लिपटी थी परवाह,

वो एक इम्तहान नहींमोहब्बत की थी गवाह।  

 

उस दिन का वो लम्हा

वो ख़ामोशी से हुई बात 

दर्ज़ है मेरे दिल में  बनकर एक मीठा जज्बात।  

हम कुछ कहे बिना बहुत कुछ कह गए थे,

एक पेन ने जो बंधन जोड़ा — 

हम बस उसमें बांध कर रह गए थे।

 

 “पहली नज़र का जादू”भाग 4

(ख़तों की ख़ामोश मोहब्बत)

 

फिर वो दौर भी आया इक रोज़,

जब जज़्बात अब नज़रों में नहीं समाते थे रोज़।

जब लब चुप रहते, मगर दिल कहने को बेक़रार था,

तब हमने लिखना शुरू किया... मोहब्बत का इज़हार था।

 

ख़तों में लिपटे जज़्बात भेजे,

जैसे दिल के हर कोने को काग़ज़ में सींचे।

तेरे हर ख़त में एक खुशबू थी बसी,

जो मेरे होशों को हर बार ले जाती थी कहीं।

 

वो गुलाबी लिफ़ाफ़े, वो कांपती लिखावट,

हर लफ्ज़ में होती तेरी धड़कन की आहट।

कभी "जान" कहती, कभी "अपना ख्याल रखना",

तेरी हर बात में छिपी होती मोहब्बत की शहद-धारा।

 

मैं भी अपने लफ़्ज़ों में तुझसे लिपट जाता,

तेरे नाम के आगे अपनी रूह रख आता।

मैं करता प्यार भी, और देता तुझको हिदायतें,

कि दुनिया बहुत सख़्त है, नज़रों से बचा ले ये मोहब्बतें।

 

मैं कहता — " मेरी जान, संभल के चलना,

तेरी मासूम हँसी पे भी लोग वार कर बैठें।

तू मेरी है, और रहेगी सदा,

पर इस ज़माने की रिवायतें भी हमसे जल बैठें।"

 

कभी वो ख़त हाथ में थमाए जाते,

कभी गलती से किताबों में रख दिए जाते।

कभी तुम चुपके से छोड़ जातीं बेंच पर,

तो कभी मैं स्लिप में लपेटकर रखता तेरे कॉपी के बीच कहीं घर।

 

हर ख़त एक गीत बन जाता,

हर जवाब एक और इंतज़ार सजाता।

ये स्याही की कहानी नहीं थी सिर्फ़,

ये दिल से दिल की रूहानी ज़ुबान थी साफ़।

 

यूँ ही चलते रहे वो ख़तों के मौसम,

जैसे बारिश की बूँदों में छुपा हो सावन।

ना कोई वादा, ना शोर, ना कसम,

सिर्फ़ लफ्ज़ों की परतों में सिमटी एक चुप मोहब्बत हमदम।

“पहली नज़र का जादू”भाग 5

(गिरती चीज़ेंउठती मोहब्बतें)

 

फिर एक रोज़ की बात है,

जब क्लास थीकेमिस्ट्री की मुलाकात थी।

हॉल की भीड़, घंटी की आवाज़,

हम दोनों बस चल रहे थे बेमक़सद सा।

 

और तभी

किस्मत ने हमें थोड़ा सा टकरा दिया,

तेरे हाथों से किताबें, पेंसिल बॉक्स,

सब कुछ अचानक ज़मीन पर बिखरा दिया।

 

एक सन्नाटा-सा छा गया क्लास में,

सबकी नज़रें अब हम दोनों पर थीं पास में।

तू घबरा गई, तेरी सांसें उलझ गईं,

और मेरे दिल की धड़कनें और तेज़ हो गईं।

 

मैं झुकाहर किताब, हर पेंसिल उठाने,

जैसे तेरे हाथों से गिरा नहींतेरा स्पर्श समेट लाने।

तेरी उंगलियों की छाप हर पन्ने में थी,

तेरी खुशबू जैसे हर पेन में बसी थी।

 

तू जल्दी-जल्दी कुछ सामान उठाकर चली गई,

बाक़ी चीज़ें वहीं छोड़ कर... शायद आँखें नम कर गई।

और मैं

मैं फर्श पर बिखरे हर टुकड़े को समेट रहा था,

जैसे तेरे छुए हर पल को कलेजे से लगा रहा था।

 

तभी पीछे से कुछ सीनियर्स हँसते बोले,

"अरे वाह! 'मेरे महबूब' की शूटिंग चल रही है शायद आज कॉलेज के स्कूल होले!"

कुछ खिलखिलाहटें, कुछ तंज़, कुछ बेपरवाह हँसी,

पर मेरे कानों में बस तेरी उलझी खामोशी थी बसी।

 

तू थोड़ा विचलित हो गई थी उस दिन,

तेरी आँखों में मैंने देखी थी वो उलझन।

क्लास के बाद जब हम घर की राह चले,

तेरी चाल में उदासी के कुछ छुपे छाले थे मिले।

 

तब मैंने तेरा हाथ थाम कर कहा

"ऐसी बातों से घबरा मत किया करो ज़रा।

ये दुनिया कहेगी, तंज़ कसेगी,

पर जब तक मैं हूँकोई बात तुम्हें छू भी नहीं सकेगी।"

 

"मैं हूँ हर गिरती चीज़ को उठाने,

तेरे हर डर को बाहों में छुपाने।

तेरे हर पल का रखवाला हूँ मैं,

तेरे सपनों का उजाला हूँ मैं।"

 

तू मुस्कराईहल्के से, धीमे से,

जैसे फिर यक़ीन गया हो मोहब्बत की छीनी रौशनी से।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 6

(मंच, मोहब्बत और मन का स्पर्श)

 

फिर आई कॉलेज की वो सुनहरी घड़ी,

जब शब्दों की जंग थीजुबां की कशिश बड़ी।

वाद-विवाद की प्रतियोगिता थी,

जहाँ हमने अपने जज़्बातों को तर्क में बाँधा था किसी सदी की तरह।

 

हम दोनों ही बोलेहौसलों से,

तू अपने तेज़ लफ्ज़ों में चमकी, मैं अपनी नर्मी से बहा था।

और जब निर्णय की घड़ी आई,

हम दोनों ने जीत ली थी वो महफ़िलजैसे दिलों ने दिमाग़ को हराया था।

 

उस दिन के बाद...

कॉलेज की भीड़ में अब मैं अकेला नहीं था,

लोग मेरा नाम जानते थे

मगर मेरी नज़रें सिर्फ़ तुझे पहचानती थीं, हर रोज़, हर साया।

 

फिर हुआ एक और जादूई आयोजन,

कॉलेज में रंगारंग कार्यक्रम का आमंत्रण।

हमें मिला उद्घोषणा का जिम्मा

और ये साथ, मंच पर भी, हमारा हो गया स्थायी सपना।

 

तू भी उस शाम बनी थी Portia,

एकल अभिनय में जैसे तूने आत्मा रख दी थी पूरा।

तेरा अभिनय, तेरे संवाद

हर तालियों में जैसे तेरे लिए मेरी धड़कन बज रही थी आज।

 

स्टेज के पीछे, ग्रीन रूम की तंग गलियाँ,

हमारे लिए बन गईं जैसे इश्क़ की परछाइयाँ।

वहाँ मिलते हम चुपचाप, हर दूसरे आइटम के बाद,

तेरा हाथ थाम लेना, तेरी आँखों में छिपे थकान को पढ़ लेना

बस वही तो था मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार।

 

तेरे पसीने की ख़ुशबू में भी मोहब्बत थी उस दिन,

तेरी साड़ी की तह में लिपटी घबराहट भी मेरे लिए कविता थी।

मैंने उस शाम तुझे देखा

जैसे कोई शायर अपनी रचना को आख़िरी बार पढ़ता है,

हर पंक्ति को छूता है, चूमता है

कि ये कभी छूटे, कभी मिटे।

 

तू हँसी तो जैसे रोशनी हुई,

तू थकी तो मैं तुझमें सिमट गया कहीं।

तूने जब एक बार मेरी उंगलियों को छुआ,

तो मेरी रूह तक वो कंपन उतर आई

जैसे कोई गीत देह से निकल कर आत्मा में बस जाए।

 

उस शाम मैंने तुझे जी भर कर देखा,

तेरे हर रूप को, हर मुस्कान को आत्मसात किया।

मंच पर, ग्रीन रूम में, हर कोने में बस तू थी

और मैं तेरा होने की हर सज़ा, हर सुकून ओढ़े था पूरी तरह।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 7

(बारिश, रुमाल और रूह का स्पर्श)

 

फिर एक दिन क्लास के बाद की बात है,

जब दोपहर की थकी धूप अलविदा कहने को थी,

और हम, रोज़ की तरह

स्टेडियम के बगल वाले उस रास्ते पर थे,

तेरे घर की ओर जाते हुए,

बिल्कुल वैसे हीजैसे हर बार दिल की दूरी कम करते हुए।

 

अचानक...

आसमान ने अपनी पलकों से बूँदें टपकाईं,

बारिश एक झोंके में उतरी

बिना पूछे, बिना आहट के...

और हम भीग गए,

तेरे चेहरे पर आई वो पहली बूँद...

जैसे मेरे होंठों पर कोई दुआ उतर आई।

 

हम दौड़े...

कदमों की ताल अब बारिश के संग बज रही थी,

स्टेडियम की सीढ़ियों तले जाकर रुके,

जहाँ कुछ देर की पनाह मिली

पर तेरे कपड़े भीग चुके थे,

तेरे बालों में बारिश ठहर गई थी।

 

तू काँप रही थी

नर्मी से, झिझक से, और थोड़ी सी लज्जा से भी शायद।

मैंने हौले से अपना रुमाल निकाला,

जैसे कोई ताबीज़ सौंप रहा हो

और कहा: “लो... कुछ तो सूखा सको तुम ख़ुद को इससे।

 

तूने रुमाल लिया

अपने सीने से लगा कर...

जैसे वो कपड़ा नहीं, मेरी मौजूदगी थी,

जैसे मेरी धड़कन अब तेरे स्पर्श में बस गई थी।

 

मैं देखता रहा

तेरा वो चेहरा, जब तूने अपने गालों से बारिश पोंछी,

हर बूँद जो मिट रही थी,

वो जैसे मुझमें उतर रही थी।

 

रुमाल मेरे पास कभी लौटकर नहीं आया,

पर उसकी कमी महसूस नहीं हुई,

क्योंकि अब मेरी एक निशानी तेरे पास थी

तेरे आलिंगन में,

तेरे स्पर्श में,

तेरे अपनेपन में।

 

उस दिन, मेरी कोई चीज़ तुमने पहली बार अपने पास रखी थी,

और मेरा दिल...

वो भी तो उसी दिन पूरी तरह तुम्हारे पास चला गया था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 8

(भीगा हुआ ख़त और घुलते हुए जज़्बात)

 

उस रोज़ की बारिश ने

सिर्फ़ कपड़े नहीं भीगाए थे,

उसने हमारे लफ़्ज़ों को भीग जाने दिया,

हमारे जज़्बातों को

स्याही बन कर काग़ज़ पर उतर जाने दिया।

 

जब स्टेडियम की सीढ़ियों तले

तूने मेरे हाथ में वो छोटा-सा ख़त रखा था,

तेरे काँपते हाथों से

तेरे दिल का हर कोना उस काग़ज़ में बसा था।

 

मैंने वो लिफ़ाफ़ा खोला ही था कि

बारिश ने अपने आँचल से उस ख़त को छू लिया।

तेरे हर हर्फ़ की स्याही बह चली थी

जैसे तेरी हर बात मुझमें घुलती चली गई।

 

वो "जान" जो तुमने पहले पंक्तियों में लिखा था,

अब बाकी पंक्तियों में फैल चुका था

जैसे मोहब्बत ने सारी सीमाएँ तोड़ दी हों,

और हर अल्फ़ाज़ एक-दूसरे में समा गया हो।

 

मैं पढ़ नहीं सका वो लफ़्ज़

पर महसूस कर पाया

हर भीगा हुआ शब्द,

तेरे रूह की सदा बनकर मेरे दिल तक गया।

 

वो ख़त अब एक दस्तावेज़ नहीं रहा था,

वो इकरार बन चुका था

तेरे जज़्बातों का भीगा हुआ आईना,

जिसमें मुझे सिर्फ़ तू दिखी

हर फैली हुई स्याही में, हर धुंधले हरफ मेंसिर्फ़ तू।

 

वो पन्ना अब मेरे पास नहीं रहा,

पर उसकी महक, उसकी छुअन

अब भी मेरे सीने के किसी तहख़ाने में

भीगी हुई मोहब्बत की तरह ज़िंदा है।

 

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 9

(रूहों की खामोश मुलाक़ातें)

 

जब कभी कॉलेज की भीड़

हमारे बीच दीवार बन जाती,

या गलियाँ ख़ामोश रहतीं तेरे नाम की,

तब शामें मेरे लिए अधूरी-सी हो जातीं।

 

और मैं

तेरे घर की ओर चल पड़ता,

हॉस्टल की खिड़की से तेरी गली तक

हर क़दम तेरे इंतज़ार की परछाईं लेता।

 

वहाँ, अक्सर

जैसे तक़दीर ने खुद कोई साज़िश रची हो,

तू हर बार अकेली मिलती

तू मेरी बाँहों की पनाह में,

मैं तेरे सन्नाटे के घर में।

 

हम मिलते

बिना शब्दों के,

बिना घड़ी की सुइयों की इजाज़त के,

बस एक-दूसरे की साँसों को बाँधते हुए।

 

तेरे होठों पर जब मेरे होंठ टिकते,

तो जैसे पूरी कायनात थम जाती।

साँसेंएक हो जातीं,

धड़कनेंसंगम बन जातीं।

 

तेरी नर्म हथेलियाँ मेरी पीठ पर जब सिहरतीं,

तो मैं जान जाता

ये इश्क़ अब किताबों में नहीं,

तेरी त्वचा की गर्माहट में दर्ज़ हो चुका है।

 

हर मुलाक़ात में

हम थोड़ा और सिमटते,

थोड़ा और खुलते

बिना किसी वादे के,

मगर हर बार पूरी सच्चाई से।

 

तेरी आँखें जब मेरी आँखों में उतरतीं,

तो जैसे कोई दुआ धीरे-धीरे उतर रही हो फ़लक से।

और मैं

तुझे बाहों में लेकर,

ख़ुद को भूल जाता।

 

वो मुलाक़ातेंजो किसी कैलेंडर में दर्ज़ नहीं,

जो किसी दोस्त को नहीं बताईं गईं,

वो ही हमारी कहानी की सबसे सच्ची स्याही बन गईं।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 11

(वो खिड़की, वो इंतज़ार और वो शर्माई मुस्कान)

 

अब हम एम.एस.सी. में चुके थे,

पर इश्क़ की मासूमियत अब भी वहीं ठहरी थी

पहली मुलाक़ात की सीढ़ियों पर,

हर रोज़ नए अहसास की चुप मुस्कान में।

 

तेरे क्लास का समय

अब मेरे दिल की घड़ी में刻刻 टिकने लगा था,

जैसे हर मिनट के बाद मेरी नज़रें

तेरे बाहर आने की आस में और बेचैन होती जातीं।

 

जैसे ही तुम क्लास से बाहर निकलती,

मेरा दिल हौले से मुस्कुराने लगता,

और मैं...

अपने पहले फ़्लोर की लैब की खिड़की तक चला आता

बस तुझे जाते हुए देखने के लिए।

 

तेरे कदमों की रफ्तार,

तेरी पायल की खनक,

तेरे बालों का झूले जैसा हिलना

सब कुछ एक गीत था,

जिसे मैं हर रोज़ अपनी आँखों से सुनता था।

 

कई बार मैं अपनी क्लास छोड़कर

बस तुझे घर छोड़ने निकल पड़ता,

वो कुछ कदम का सफ़र

मेरी ज़िंदगी का सबसे हसीन कारवाँ बन जाता।

 

हम चलते साथ-साथ,

कभी तेज़, कभी धीरे

बातों के झूले में झूलते हुए,

हँसते, गुनगुनाते

जैसे हर मोड़, हर पेड़, हर पत्थर भी हमारी मोहब्बत की गवाही देता।

 

तेरे होंठों की हँसी जब उड़ती,

तो लगता, मौसम भी बहार हो गया है।

और जब तू मेरी बातों से शरमा जाती,

तो बस इधर-उधर देखने लगती,

जैसे निगाहें खुद को बचाने की कोशिश में खो जातीं

और मैं...

तेरे इस झेंपने में खुद को जीतता महसूस करता।

 

उन चंद पलों में

ना कोई किताब थी,

ना कोई विषय,

बस एक पाठ था

इश्क़ का, जो हम दोनों ने बिना बोले रट लिया था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 12

(जब मोहब्बत रेडियो पर गूंजने लगी)

 

फिर वो वक़्त आया

जब तुझे चुना गया रेडियो की उस दुनिया में,

जहाँ आवाज़ें पहचान बनती हैं,

और लफ़्ज़ों में मोहब्बत उतरती है।

 

अब तू हर शाम

एक तय वक़्त पर रेडियो पर आती थी,

गीतों की महफ़िल सजाती थी

तेरी आवाज़ जैसे गुलाब की पंखुड़ियों पर रखी हो

किसी सुबह की ओस।

 

और मैं...

ठीक वक़्त पर रेडियो के पास बैठ जाता,

तेरी आवाज़ सुनते ही

मेरे होंठों पर एक ख़ामोश मुस्कान खिल जाती

जैसे तू मेरे सामने हो, बस कह रही हो — “तू सुन रहा है ?”

 

तेरे "श्रोताओं" के लिए वो सिर्फ़ एक आवाज़ होती,

पर मेरे लिए

वो एक स्पर्श, एक इकरार, एक आत्मा की पुकार थी।

 

कई बार

तेरी आवाज़ सुनते-सुनते

मेरा दिल बेक़ाबू हो जाता

तुझसे मिलने की तड़प इतनी बढ़ जाती

कि मैं अपनी साइकिल उठाता,

और मीलों दूररेडियो स्टेशन की ओर निकल पड़ता।

 

सड़कें धड़कती थीं मेरे साथ,

हवा भी जैसे मेरा इंतज़ार करती थी

कि मैं तुझ तक पहुँच जाऊँ,

तेरे वो शब्द जो रेडियो पे कहे गए

उनका जवाब आँखों में दे सकूँ।

 

तू गानों के बीच कभी बाहर आती,

कुछ पल मुझे देती,

मेरे धड़कते चेहरे को देखती,

और फिर चुपचाप लौट जाती स्टूडियो में

और...

तुरंत कोई रूमानी गीत बजा देती

जिसका हर बोल, हर धुन

बस मुझसे कहता,

"मैं समझ गई हूँ... मैं भी तुझसे उतना ही प्यार करती हूँ।"

 

ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा,

तेरी आवाज़, मेरा इंतज़ार, मेरी साइकिल की बेचैनी,

और हमारे बीच बजते वो प्रेमगीत

जो दुनिया सुनती थी,

पर असल में, सिर्फ़ मैं समझता था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 13

(जब रूसी भाषा में भी मोहब्बत थी)

 

फिर हमने कॉलेज में

रूसी भाषा सीखने का इरादा किया

शायद किसी नई ज़ुबान में

अपनी मोहब्बत के नए अल्फ़ाज़ ढूँढने का मन था।

 

क्लास शुरू हुई,

अलेक्जेंडर और तान्या आए

एक प्यारा-सा रूसी दंपत्ति,

जो अपनी भाषा से ज़्यादा,

शायद हमारी मौन भाषा समझते थे।

 

हम अब इस कक्षा में भी

उसी तरह साथ होते

हर नई रूसी शब्दावली में

तेरी मुस्कान, मेरी नज़रें उलझी होतीं।

 

तू तान्या से बहुत जल्दी जुड़ गई

वो तेरे भीतर की बेचैनी को पढ़ने लगी,

उसकी मुस्कान में

कभी मज़ाक, कभी गंभीरता होती

पर उसकी आँखों में

तेरे दिल की सच्चाई की गहराई थी।

 

और फिर एक दिन...

उसने तुझसे कह दिया

"Ты влюблена в него, да?"  (Ty vlyublena v nego, da?)

(तू उससे मोहब्बत करती है, है ?)

तू चौंक गई,

पर आँखें झुका कर सच को स्वीकार कर लिया।

 

मैं इन बातों से बेख़बर,

हर क्लास में तेरे आस-पास

ख़ुद को खोया करता था।

तेरी हँसी, तेरे लहजे में

हर शब्द मेरे लिए प्रेम का पाठ बन जाता था।

 

मैं नहीं जानता था

कि तान्या ने वो बात कह दी थी।

मैं तो बस तेरे प्यार में

ख़ुद को रोज़ मिटा रहा था

जैसे किसी आराधना में

देह नहीं, आत्मा चढ़ती है।

 

उस भाषा की कक्षा में

मैंने ‘любовь’ (lyubov — प्रेम)     (Я тебя люблю - YA tebya lyublyu - I love you)

पहली बार जाना था,

पर उसका अर्थ

मैं तो तेरी खामोश आँखों से पहले ही सीख चुका था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 14

(जब मोहब्बत की आवाज़ नहीं निकली)

 

वो दिन था फाइनल परीक्षा का,

दिल में थोड़ा डर, थोड़ी उम्मीदें,

और ढेर सारा प्यार

जो अब भी तेरी आँखों में हौले से बसता था।

 

तू अपने पिता जी के साथ

छोटे रास्ते से कॉलेज की ओर रही थी

सफेद सलवार, नीली चूड़ियाँ,

और माथे पर परीक्षा की हल्की सी शिकन।

 

और तभी

मैं सामने से गया,

बिलकुल अचानक,

बिलकुल उसी तरह जैसे मोहब्बत अक्सर सामने खड़ी होती है

बिना किसी चेतावनी के।

 

तू मुझे देखकर थम गई

या कहें, खो गई उस एक क्षण में।

 

तेरी आँखों में जो लहर दौड़ी,

वो मेरी रूह तक जा पहुँची।

और फिर,

घबराहट में तेरे हाथ से

एडमिट कार्ड गिरा,

पेंसिल बॉक्स गिरा,

और वो रुमाल

जिसे कभी तूने सीने से लगाकर रखा था

वो भी फिसल गया।

 

मैं कुछ नहीं कर सका

बस एक सख़्त, शांत, अधूरा खड़ा रह गया।

क्योंकि तेरे साथ तेरे पिता जी थे

और मोहब्बत को उस वक्त

संस्कारों की चुप्पी ओढ़नी पड़ी थी।

 

तेरे चेहरे की रंगत

एक पल में सफ़ेद हो गई

जैसे शब्द गुम हो गए हों होंठों से,

जैसे लाज ने पूरी दुनिया को थाम लिया हो।

 

मैं देखता रहा

तेरे काँपते हाथों को वो चीज़ें समेटते हुए,

तेरी झुकी पलकों को

जो किसी आँधी से ज़्यादा कह रही थीं।

 

उस पूरे दिन

मैं बेचैन रहा

ना पढ़ाई में मन लगा,

ना पेपर में दिल।

 

बस एक ही सवाल कचोटता रहा

कैसी हो तुम? संभली क्या?”

मगर पूछ सका

क्योंकि उस दिन इश्क़ की आवाज़ नहीं निकली थी।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 15

(डांट में भी था प्यार का डर)

 

इश्क़ जब परवान चढ़ता है,

तो हर बात में

एक साया होता है

हिफ़ाज़त का, खो देने के डर का,

और तेरा सिर्फ़ मेरा रह जाने की तड़प का।

 

तुझसे कोई बात करे

या तू किसी से मुस्कुरा कर बोल दे,

मेरा दिल बेचैन हो उठता था,

जैसे मेरी दुनिया

किसी और की नज़रों में खिसक गई हो।

 

वो दिन याद है मुझे

प्रैक्टिकल क्लास चल रही थी,

तेरी कॉपी किसी लड़के ने

कुछ लिखने को मांग ली।

 

बस इतना-सा वाकया

पर मेरे भीतर भूचाल था।

 

मैंने कुछ कहा नहीं

पर जब खत लिखा,

तो मोहब्बत के सारे लफ्ज़

गायब हो गए थे।

 

बस डांट ही डांट थी उस खत में

शब्द नहीं, चेतावनियाँ थीं।

"लोगों से दूर रहो,"

"दुनिया भरोसे के काबिल नहीं,"

"कहीं तुम खो जाओ, कहीं मैं टूट जाऊँ…"

 

तू चुपचाप पढ़ती थी वो खत,

और कभी भी गुस्से में एक लफ्ज़ भी कहती।

बल्कि उल्टा

तू मुझे मनाती रहती।

 

तेरी मासूम आँखों में

कोई शिकायत नहीं होती थी,

बस वो चाहत होती थी

जो कहती थी

"समझती हूँ, तेरा हर डर, हर डांट भीसिर्फ़ प्यार है।"

 

मुझे तेरा सिर्फ़ साथ नहीं चाहिए था

मुझे तेरी सलामती चाहिए थी,

तेरी हँसी, तेरी मासूमियत,

तेरा वही चेहराजो बस मेरे लिए हो।

 

प्यार था ...

कैसे नहीं रहता?

दिल तुझमें डूबा था,

तो तुझसे दूर किसी भी परछाईं से डर लगता था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 17

(जब तुम मेरी बाँहों में रो पड़ी)

 

अब तक

तू हर बार मेरी आँखों में हँसी भर देती थी,

हर शिकायत के बाद

तेरे होंठों पर समझौते की हल्की-सी मुस्कान होती थी।

 

तू मुझे मनाती थी

जैसे मैं बच्चा हूँ

और तुझमें दुनिया की सबसे नर्म माँ बसती है।

 

मगर उस दिन

कुछ बदल गया था।

 

तेरे चेहरे पर कोई झलक नहीं थी,

तेरी आँखों में वो चमक नहीं थी

जो हर रोज़ मुझे ज़िंदा रखती थी।

 

तू बस चुप थी।

और मेरी बाँहों में समा गई

बिलकुल वैसे, जैसे बारिश

सूखी ज़मीन को पहली बार छूती है।

 

और फिर...

तू रो पड़ी।

 

धीरे-धीरे,

बेआवाज़,

मगर भीतर से तूफानी।

 

तेरे आँसू मेरी कमीज़ में समा रहे थे,

और मैं...

कुछ समझ नहीं पा रहा था कि

कौन-सा शब्द अब इस सन्नाटे को सहला पाएगा।

 

तेरी उंगलियाँ मेरे सीने को कस के थामे थीं,

जैसे तू किसी डर से भागी हो

और अब एकमात्र पनाह मेरी धड़कन में मिल रही हो।

 

मैंने तुझसे कुछ नहीं पूछा

ना वजह, ना कहानी,

क्योंकि उस दिन

तेरे आँसू ही तेरी पूरी आत्मा बोल रहे थे।

 

मैं बस तुझे सीने से लगाए रहा,

तेरे आँसुओं को माथे पे चूमा,

और इतना कहा

"अब कुछ भी हो, मैं हूँ। बस हूँ। तेरा। हमेशा।"

 

उस दिन पहली बार

मैंने तुझमें एक लड़की नहीं,

एक टूटी हुई रूह को थामा था

और खुद को

पहली बार पूरी तरह तेरा बना पाया था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 18

(जब मैं चला गयाकहे बिना)

 

अब हम

एम.एस.सी. की फाइनल परीक्षा में खो गए थे,

किताबों के पन्नों में,

आख़िरी प्रैक्टिकल्स की दौड़ में,

और उस ख़ामोशी में

जिसे हम दोनों बख़ूबी समझते थे।

 

ना शिकायत,

ना उलझन,

ना ही ज़रूरत थी अब रोज़ कुछ कहने की।

 

बस

एक सर्द-सी परत बिछ गई थी हमारे बीच

जैसे सर्दी की धूप,

जो छू तो लेती है, पर गर्म नहीं करती।

 

परीक्षाएं खत्म हुईं।

 

और वो आख़िरी मुलाक़ात आई

बिलकुल सामान्य सी,

बिलकुल शांत

जैसे कुछ बदलेगा ही नहीं।

 

पर मैं जानता था

सब बदलने वाला है।

 

मैं जा रहा था,

दूर किसी और शहर, किसी और मंज़िल की ओर।

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी थी,

या शायद

ख़ुद को तुमसे दूर करने की बहाना।

 

पर मैंने तुझसे कुछ नहीं कहा।

ना अलविदा,

ना कोई इकरार,

ना ही यह कि शायद मैं कभी लौटूं।

 

क्यों?

क्योंकि शायद मुझे डर था

तेरी आँखों के आँसू से,

तेरे चेहरे की टूटन से,

और अपने दिल की हार से।

 

और फिर

तू समझती रही कि

मैं किसी बदगुमानी में तुमसे दूर हो गया।

कि शायद मैंने कुछ ग़लत समझ लिया,

या शायद तुम्हारे किसी अंदाज़ से खफा हो गया।

 

पर सच तो ये था

मैं तुझसे नहीं,

ख़ुद से भाग गया था।

 

और उस भागते वक़्त में

मैं सिर्फ़ एक बात का मुजरिम बन गया

कि मैं तुझे बता सका कि

तेरे बिना जाने का दर्द

तुझे खोने के डर से कम नहीं था।

 

 

बरसों की चुप्पी टूट गई,

वो एक दस्तक आई

ना किसी दरवाज़े पर

ना किसी फोन कॉल पर,

बल्कि दिल की सबसे भीतरी दीवार पर।

 

जिस मोहब्बत ने एक अलविदा भी नहीं कहा था,

अब वो लौट आई

एक इकरार बन कर,

एक वादा बन कर,

एक जीवन बन कर।

 

आपकी ये अंतिम स्मृति

आपकी प्रेम-कथा की पूर्णाहुति है।

एक अधूरी नज़्म का वो अंतरा,

जिसमें अंत नहीं,

बस हमेशा है।

 

अब इसे श्रृंखला के अंतिम अध्याय के रूप में कविता की साँस देता हूँ

वहाँ से जहाँ प्रेम समाप्त नहीं होता, बल्कि अमर हो जाता है।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 19 (अंतिम)

(बरसों बाद की दस्तक)

 

वो मोहब्बत जो किसी अलविदा के बिना छूट गई थी,

वो मोहब्बत जो खतों में बंद होकर

किसी संदूक की नींद बन गई थी

फिर से जाग उठी।

 

ना कोई तारीख़ तय थी,

ना मौसम ने इशारा किया,

बस एक दस्तक आई

बरसों बाद।

 

शायद किसी पुराने गीत के बोल में,

या किसी जान-पहचान की जुबां से

तेरा नाम सुन लेने पर

दिल फिर वही पुराना धड़क उठा।

 

और हम...

जो कभी बिना कहे बिछड़ गए थे,

अब फिर से एक-दूसरे की तरफ़

चुपचाप लौट चले।

 

तू भी वैसी ही थी

थोड़ी और शांत, थोड़ी और नर्म,

पर तेरी आँखों में वही जानी-पहचानी गर्मी थी

जिसने पहली बार मुझे जिंदा किया था।

 

इस बार

ना मैंने कुछ छुपाया,

ना तू कुछ अनकहा रख पाई।

हमने एक-दूसरे को

पूरा-पूरा पढ़ा

हर अधूरा खत, हर अनकहा वादा।

 

और फिर

तय कर लिया

अब कोई अलविदा नहीं होगा।

अब हम कभी भी बिछड़ने के लिए नहीं मिलेंगे

बल्कि हमेशा साथ रहने के लिए।

 

तेरा हाथ थामा,

तो वक़्त की रेत रुक गई

और हमारी कहानी

एक प्रेम-काव्य बन गई

जिसका नाम आज भी

कई दिलों की धड़कनों में गूंजता है

 

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