Monday 29 April 2013

मेरे ख्वाब

ना जाने

और कितनी रातें

गुज़रेंगी

उन ख़्वाबों के बिना

जिनमें कभी

मेरी ज़िन्दगी रहा करती थी

तुम क्या गयीं

इन ख़्वाबों से

जैसे मेरी

ज़िन्दगी चली गयी

तुम्हें तो शायद

मालूम भी न हो

कि यूँ मेरे ख़्वाबों में

तुम ज़िन्दगी बन कर रहती थी

जाने वो ख्वाब

इन आँखों से

कहाँ चले गए

जैसे किसी ने उन्हें

मेरी आँखों से छीन लिया हो

कहीं ये तुम्हारी जिद तो नहीं

मेरी आँखों से

मेरे ख्वाब चुराने की

कि मैं इनके सहारे

ज़िन्दगी जी न सकूं

पर मैं भी

इस जद्दोजहद में हूँ

कि उन ख़्वाबों को

कहीं से ढूंढ कर लाऊं

इन आँखों में सजाऊं

और

इनमें

अपनी ज़िन्दगी गुज़ार दूं

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