Monday 22 April 2013

कभी यूँ हो कि

कभी यूँ हो कि

मैं कोई ख्वाब बुनूं

और उस ख्वाब में

बस तुम हो

या फिर

यूँ हो कि

मेरे ख़्वाबों की हर ताबीर में

तुम, तुम और बस तुम हो

या यूँ हो कि

जब भी हम तस्सवुर किया करें

उस तस्सवुर में

बस इक तुम हो

या यूँ हो कि

मेरी हर राह जहां से भी गुज़रे

उसकी हर रहगुज़र पर

बस तुम हो

या यूँ हो कि

मैं कोई भी राह चलूँ

हर राह की मंजिल

बस तुम हो

या फिर यूँ हो कि

तुम्हें सोचते हुए

मैं जब भी अपनी आँखें खोलूँ

मेरे सामने मेरे हमदम

बस इक तुम हो

और यूँ हो कि

जो भी हो इसी जनम में हो

क्यूंकि मैं नहीं जानता

जनम जनम का बंधन

बस इतना जानता हूँ कि

इस जनम में तुम हो

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