Tuesday 4 September 2012

खगों का कलरव

सांझ के सन्नाटे में

अपने नीड़ को लौटते

खगों का कलरव

मानों

सैकड़ों साज

एक साथ

सरगम की तलाश में

अपने अपने सुरों से

लड़ रहे हों

फिर भी सुर जैसे

कम पड़ रहे हों

फिर अचानक

एक निस्तब्धता

हौले से

पसर जाती है

सांझ की अँधेरी

फैलती चादर पर

एक शून्य का

अहसास कराती

भोर के आने तक

निशा के आँचल में

सिमटी हुई

भोर की पहली किरण के

फूटते ही

फिर वही कलरव गान

लय वैसी ही

बिखरी हुई

फिर वही हलचल

निद्रा के

टूटते ही

ना आलस ना कोई थकान

सांझ के आने तक

यही सिलसिला

यूँ ही

चलता रहता है

बिना रुके बिना टूटे

अनवरत








2 comments:

  1. यही सिलसिला यूँ ही चलता रहे अनवरत ... आमीन !!!

    बेहद सुन्दर भावों से सजी है आपकी रचना, प्रशांत जी ...


    सादर

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