कैसे तेरा बखान करूँ
हर शब्द मुझे भरमाते हैं
तेरे यौवन के आँगन में
मेरे शब्द कम पड़ जाते हैं
अधखिले कमल नहीं
ना ही दिये की बाती
तेरे ये दोनों नयन
किसी दूर देश से आते हैं
तेरे अधरों को क्या कहूं
कभी मदिरा के प्याले लगते
कभी पंखुड़ी गुलाब की
बड़ी मुश्किल में पड़ जाता हूँ
जब अधर तेरे शरमाते हैं
काया तेरी कंचन वाली
चाल हिरणों सी मतवाली
कंचन हिरण भूल जाऊं सब
जब कदम तेरे इठलाते हैं
रंग रूप और यौवन तेरा
जैसे हो सम्मोहन का घेरा
कितना भी रोकूँ खुद को
मेरे कदम बहक ही जाते हैं
तुझको बनाकर ईश्वर भी
खुद पर ज़रूर इतराता होगा
फिर मैं तो निरा मानव ठहरा
तुझे देख फ़रिश्ते भी फिसल जाते हैं
हर शब्द मुझे भरमाते हैं
तेरे यौवन के आँगन में
मेरे शब्द कम पड़ जाते हैं
अधखिले कमल नहीं
ना ही दिये की बाती
तेरे ये दोनों नयन
किसी दूर देश से आते हैं
तेरे अधरों को क्या कहूं
कभी मदिरा के प्याले लगते
कभी पंखुड़ी गुलाब की
बड़ी मुश्किल में पड़ जाता हूँ
जब अधर तेरे शरमाते हैं
काया तेरी कंचन वाली
चाल हिरणों सी मतवाली
कंचन हिरण भूल जाऊं सब
जब कदम तेरे इठलाते हैं
रंग रूप और यौवन तेरा
जैसे हो सम्मोहन का घेरा
कितना भी रोकूँ खुद को
मेरे कदम बहक ही जाते हैं
तुझको बनाकर ईश्वर भी
खुद पर ज़रूर इतराता होगा
फिर मैं तो निरा मानव ठहरा
तुझे देख फ़रिश्ते भी फिसल जाते हैं
वाह ! रूमानियत से भरी श्रंगार रस से परिपूर्ण, सुन्दर रचना....
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