Tuesday 15 July 2014

अनन्त की ओर

अनन्त की ओर

चला हूँ मैं

पहली सांस से

शुरू हुआ यह सफ़र

आख़िरी सांस पर

शायद अनन्त का द्वार मिले

अग्रसर हूँ मैं बस

हर पल हर घड़ी

उसी अनन्त की ओर

अनन्त के इस सफ़र में

हर मोड़ पर

जाने कितने लोग मिले

जाने कितने बिछड़े

जो मिले

वो अपने भी थे

कुछ सपने भी थे

जो बिछड़े

वो आंसुओं में बह गए

कुछ यादों में रह गये

हसरतों का भी दौर चला

उम्मीदों का भी रहा सिलसिला

कुछ हसरतें रहीं अधूरी

उम्मीदें भी कहाँ हुई पूरी

हर पल हर घड़ी

अग्रसर हूँ मैं

अनन्त के इस सफ़र में

कल से बेख़ौफ़ बेख़बर

अच्छा ही रहा

अब तक का सफ़र

कुछ खुशियाँ मिलीं

कुछ ग़म मिले

आंसुओं से भी हम मिले

ना उड़ने का गुमां रहा

ना गिरने का मलाल

उड़े तो अपनी ज़मीं थाम कर

गिरे तो हौसले नहीं टूटे

बस उठ कर चल पड़े

ठोकरों से सम्हल कर

होनी से बेख़ौफ़ बेख़बर

मालूम नहीं

कब पहुँचना  होगा

उस अनन्त के द्वार पर

विधाता को हो शायद

इसकी खबर

थाम कर आशा की डोर

मैं बस चलता ही जा रहा हूँ

हर पल हर घड़ी

अनन्त की ओर

अनन्त की ओर











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