नैनों में अंसुवन के मोती लिए
दुल्हन डोली चढ़ने जा रही
जिस आँगन में खेली दिन रात
उस आँगन की याद सता रही
कलपती सिसकती गोरी
अपनों के गले मिलती जा रही
जाने फिर कब आना हो देश बाबुल का
यही सोच सोच बिलखती जा रही
........
जिस आँगन में देखे वसंत सारे
वो आँगन पीछे छुटी जा रही
इक्कट दुक्कट खेला जिन सखियों संग
वो सखियाँ बिछड़ी जा रही
माखन चाचा बृंदा मौसी चंपा चमेली
सब रहे गए गाँव में ... हम कहाँ जा रही
जाने फिर कब आना हो देश बाबुल का
यही सोच सोच बिलखती जा रही
.......
बाबूजी के काँधे पर मेला देखा
माई ने गृहस्थी सिखाई
भाई बहन संग अम्बिया चुरायी
अब सब की याद सता रही
सब का आशीष लिए बैठी डोली में
रुंधे गले से सबको समझा रही
जाने फिर कब आना हो देश बाबुल का
यही सोच सोच बिलखती जा रही
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