Friday, 16 May 2025

अपनी राह का राही - गीत 2

 अंतरा 1 — भूमिका: जीवन की टूटन और मलाल


अंतरा 2 — समाज से संघर्ष और विद्रोह


अंतरा 3 — आशा की किरण


अंतरा 4 — स्व-खोज और आत्मस्वीकृति


कोरस (हर अंतरे के बाद) — जीवन की पुकार और आत्मा की आवाज़




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गीत का शीर्षक: "मैं अपनी राह का राही हूँ"


[कोरस]

मैं अपनी राह का राही हूँ,

हर ठोकर में एक सच्चाई हूँ।

जो टूटा नहीं, बस थमा-सा गया,

मैं वही अधूरी खुदाई हूँ।



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[अंतरा 1]

ज़िंदगी की जद्दोजहद में,

हर सपना बिखर गया।

जो बचा है, वो कुछ मलाल हैं,

कुछ शिकवे, कुछ गिला गया।

मुस्कान के पीछे थकी सी सांसें,

किसी ने भी तो ना जाना।


[कोरस]

मैं अपनी राह का राही हूँ...



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[अंतरा 2]

समाज ने बाँधी थीं बेड़ियाँ,

नाम दिए—कर्तव्य, धर्म।

मैं चलता रहा, पर खोता गया,

खुद को ही बना लिया भ्रम।

अब पूछता हूँ इन आवाज़ों से,

क्या सच में यही है कर्म?


[कोरस]

मैं अपनी राह का राही हूँ...



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[अंतरा 3]

पर एक कोना भीतर का कहता,

"तू अब भी जल सकता है।"

हर हार के बाद भी तुझमें,

कोई दीप पल सकता है।

हर अंधेरे में बसी है सुबह,

जो तुझसे निकल सकती है।


[कोरस]

मैं अपनी राह का राही हूँ...



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[अंतरा 4]

अब खुद को जान लिया मैंने,

जो दबा था, अब बोल रहा।

जो खो गया था भीड़ में,

वो भीतर से खोल रहा।

अब जाऊँगा वहीं जहाँ मैं हूँ,

नक़्शा नहीं, बस मर्ज़ी मेरी है।


[अंतिम कोरस – स्वर में उत्थान के साथ]

मैं अपनी राह का राही हूँ,

हर ठोकर में एक सच्चाई हूँ।

अब थमा नहीं, अब रुका नहीं,

मैं ज़िंदा आवाज़ खुदाई हूँ।




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