Sunday, 28 April 2013

बंज़र आँखें

कितनी रातें

बीत गयीं

इन आँखों में कोई

ख्वाब नहीं

ख्वाब कहाँ से होंगे

जब आँखों में

नींद नहीं

बंजर सी क्यूँ हो गयीं

इन आँखों की ज़मीं

खारे पानी से

सींचते रहे हम इन्हें

शायद कहीं

यही वजह तो नहीं

अब तो बस

यूँ ही

ये बंज़र आँखें

तकती रहेंगी राह यहीं

कि कभी कोई ख्वाब

जो राह भटके ही सही

इन आँखों में

पा जाए पनाह कहीं


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