कितनी रातें
बीत गयीं
इन आँखों में कोई
ख्वाब नहीं
ख्वाब कहाँ से होंगे
जब आँखों में
नींद नहीं
बंजर सी क्यूँ हो गयीं
इन आँखों की ज़मीं
खारे पानी से
सींचते रहे हम इन्हें
शायद कहीं
यही वजह तो नहीं
अब तो बस
यूँ ही
ये बंज़र आँखें
तकती रहेंगी राह यहीं
कि कभी कोई ख्वाब
जो राह भटके ही सही
इन आँखों में
पा जाए पनाह कहीं
बीत गयीं
इन आँखों में कोई
ख्वाब नहीं
ख्वाब कहाँ से होंगे
जब आँखों में
नींद नहीं
बंजर सी क्यूँ हो गयीं
इन आँखों की ज़मीं
खारे पानी से
सींचते रहे हम इन्हें
शायद कहीं
यही वजह तो नहीं
अब तो बस
यूँ ही
ये बंज़र आँखें
तकती रहेंगी राह यहीं
कि कभी कोई ख्वाब
जो राह भटके ही सही
इन आँखों में
पा जाए पनाह कहीं
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