(जहाँ प्रेम ही अंतिम उत्तर था)
उस क्षण —
ना कोई जन्म रहा,
ना मृत्यु का भय।
ना कोई लौटना,
ना कोई छूटना…
सिर्फ़ हम थे—
एक श्वास,
एक रौशनी,
एक अस्तित्व।
न कर्म बाँध सके,
न काल छू सका।
प्रेम ने
हमारे चारों ओर
एक ऐसा वलय रचा,
जहाँ कोई नियम नहीं था—
सिर्फ़ स्पंदन था,
जो एक-दूजे में समाया था।
ना पुकार थी,
ना प्रतीक्षा—
बस वो मौन था,
जिसमें पूरी सृष्टि
सहलाती सी समा गई थी।
तुमने मेरी ओर देखा,
जैसे पहली बार देखा हो—
फिर भी हर युग का स्मरण
तुम्हारी आँखों में था।
मैंने तुम्हारे स्पर्श को
महसूस नहीं किया,
क्योंकि अब
हमारे बीच
कोई ‘स्पर्श’ था ही नहीं।
हम स्वयं ही
एक-दूसरे का विस्तार बन गए थे।
उस क्षण,
जब देह ने अंतिम साँस ली—
रूह मुस्कुराई,
जैसे कह रही हो—
"अब कुछ भी छूट नहीं रहा,
अब सब कुछ मिल चुका है।"
ना पुनर्जन्म की परिक्रमा,
ना इच्छाओं की सूचियाँ—
प्रेम ने
हमारे सारे पथ खोल दिए थे।
हम
एक-दूसरे में
स्वयं को पाकर
मुक्त हो गए।
तुम मेरी रचना बने,
मैं तुम्हारा संगीत।
तुम मेरे मौन में
जैसे ब्रह्म की अंतिम ध्वनि—
मैं तुम्हारे प्रकाश में
जैसे अनंत की अंतिम चित्कार।
अब कोई नाम नहीं,
कोई पहचान नहीं,
सिर्फ़
वो आभा है
जिसमें दो रूहें
एक होकर
अस्तित्व से आगे
बह निकली हैं—
स्वयं प्रेम बनकर।
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