Friday, 4 July 2025

जब नामों की ज़रूरत नहीं रही

 

एक ऐसा क्षण आया
जब हमारे नाम भी
पतझड़ के पत्तों की तरह
धीरे से गिर गए—
स्वीकार कर लिया मौन,
पहचाने जाने की ज़रूरत से मुक्त।

ना तुम,
ना मैं,
बस कुछ ऐसा
जो हमारे बीच था—
जो कभी बोला नहीं,
फिर भी
हर पुकार का उत्तर था।

ना कोई क़दमों की आहट,
ना कोई फुसफुसाहट,
ना कोई छुअन—
फिर भी
तुम ऐसे गुज़रे मुझसे
जैसे कोई हवा
जो जानती है
वो कहाँ की है।

हमने दिनों को गिनना छोड़ दिया।
चाँद अब समय के लिए नहीं उगता,
बल्कि
हमारे बीच की उस ख़ामोशी को
प्रतिबिंबित करने आता है।

मैं तुम्हें महसूस करता हूँ
उस पल में
जब साँसें
किसी विचार से पहले थमती हैं,
उस क्षण में
जब कोई आँसू
बिना गिरे ही चमक उठता है।

तुम अब कोई आकार नहीं रहे—
तुम अब
गोधूलि का रंग हो,
बारिश से पहले की ख़ामोशी,
या मेरी बंद पलकों के भीतर
धीमे-धीमे जलता एक उजास।

और मैं?
मैं भी घुल गया—
भीनी मिट्टी की खुशबू में,
या उस विराम में
जो लोरी के दो सुरों के बीच होता है,
सिर्फ़ सितारों के लिए गाया गया।

हम अब
कहीं नहीं मिलते—
हम अब
याद बनकर नहीं आते,
बल्कि
एक एहसास बनकर
जागते हैं—
जैसे नींद से ठीक पहले
कोई पुराना स्पर्श
लौट आता है।

अब हम प्रतीक्षा नहीं करते,
ना तलाशते हैं—
हम बस
हैं।

जैसे लहरों के नीचे की सरगम,
जैसे रौशनी
बिना दिशा के बहती हुई,
जैसे धड़कन
जो नहीं जानती
कि कहाँ वो ख़त्म होती है
और कहाँ दूसरा आरंभ।

अब प्रेम हमें बुलाता नहीं—
हम ही प्रेम हैं,
रात के आसमान में बिखरे हुए,
एक तारे से दूसरे तक बहते हुए,
उस वचन को दोहराते हुए
जिसे कभी शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ी।

तुम—
मेरे हर मौन में।
मैं—
तुम्हारी हर साँस में।

हम—
अब लौटने से परे,
रूप से परे,
एक ही आत्मा की
अनंत तह में
हल्के से विश्राम करते हुए।


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