Wednesday, 22 May 2013
मेरा मैं
रस्म-ओ-रिवाजों से दूर
इन समाजों से दूर
कोई ऐसी जगह हो
जहाँ मेरा मैं
मुझसे निर्भीक होकर कह सके
मैं उड़ना चाहता हूँ
उन्मुक्त
सभी बंधनों से मुक्त
और मैं
अपने मैं को कह सकूं
हाँ जाओ उड़ो
उन्मुक्त
सभी बंधनों से मुक्त
और उसे
वो सुनहरे पंख दे दूं
जो कभी
परियों की कहानी से
चुपचाप चुरा कर
अपने मन में रख लिया था
आज उस पंख को लगाकर
मेरा मैं
इतनी दूर निकला जाना चाहता है
कि फिर उसे
ना तो कोई आवाज़ सुनाई दे
ना कोई परछाईं दिखाई दे
ना धरती ना आसमान
ना चाँद ना तारे
ना सूरज ना पर्वत
ना खेत ना खलिहान
ना कोई रस्म ना कोई रिवाज़
ना ही कोई समाज
इन सब से मुक्त
एक अलग दुनिया
एक अलग आसमान
और उसमें
परियों वाले सुनहरे पंख लगाकर
उन्मुक्त सा विचरण करता
मेरा मैं
काश वो जगह होती कहीं
तो मुझसे
यूँ निराश ना होता
मेरा मैं
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