सर से पांव तक
तुम एक कविता हो
निर्झर सी बहती हुयी
जीवन की सरिता हो
अप्रतिम सुन्दरता का
प्रतिरूप हो तुम
ठिठुरती हुयी छाँव में
गुनगुनी सी धुप हो तुम
आँखें तुम्हारी मयखाने हैं
होठ छलकते पैमाने हैं
लेती हो जब तुम अंगड़ाईयाँ
झुक जाती है फूलों की डालियाँ
झुकती हैं जब पलकें तुम्हारी
खिल जाती है गुलशन सारी
झटकती हो जब तुम
अपनी जुल्फों से पानी
जाने कितनी भटकती रूहें
पा जाती हैं जिंदगानी
तुम्हें छूकर
हवा जो जाती है
तुम्हारी खुशबु से
सारा गुलशन महकाती है
तुम्हारे काले नशीले
गेसू घनेरे
जैसे घटा घनघोर छाए
सवेरे सवेरे
तुम्हारी कलाई पे सजी
ये चूड़ियाँ सतरंगी
कर देगी हमारे मिलन की
घड़ियों को रंगीं
गले से अपने अब
तुम लगा लो मुझको
कोई ख्वाब नहीं
हकीक़त हो तुम
यकीं दिला दो मुझको
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