Monday 27 August 2012

तुम एक कविता हो

सर से पांव तक 

तुम एक कविता हो 

निर्झर सी बहती हुयी 

जीवन की सरिता हो 

अप्रतिम सुन्दरता का 

प्रतिरूप हो तुम 

ठिठुरती हुयी छाँव में 

गुनगुनी सी धुप हो तुम 

आँखें तुम्हारी मयखाने हैं 

होठ छलकते पैमाने हैं 

लेती हो जब तुम अंगड़ाईयाँ 

झुक जाती है फूलों की डालियाँ 

झुकती हैं जब पलकें तुम्हारी 

खिल जाती है गुलशन सारी 

झटकती हो जब तुम 

अपनी जुल्फों से पानी 

जाने कितनी भटकती रूहें 

पा जाती हैं जिंदगानी 

तुम्हें छूकर 

हवा जो जाती है 

तुम्हारी खुशबु से 

सारा गुलशन महकाती है 

तुम्हारे काले नशीले 

गेसू घनेरे 

जैसे घटा घनघोर छाए 

सवेरे सवेरे 

तुम्हारी कलाई पे सजी 

ये चूड़ियाँ सतरंगी 

कर देगी हमारे मिलन की 

घड़ियों को रंगीं 

गले से अपने अब 

तुम लगा लो मुझको 

कोई ख्वाब नहीं 

हकीक़त हो तुम 

यकीं दिला दो मुझको 


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